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प्रेमी-अभिनदम-ग्रंथ हुआ है। कहा जाता है जब भगवान महादेव ने हलाहल पान किया और नीलकण्ठ हो गये तब इसी स्थान पर निवास किया। सीताराम के भाने की भी कथा सुरक्षित है। 'सीता सेज' एक स्थान का नाम है।
पहाड पर 'स्वर्गारोहाण' जलाशय है। उसमें गमियो में स्वच्छ शीतल जल मिलता है। पहले नीलकठ महादेव का विशाल मदिर था। उसके टूटे खभे विशालता की स्मृति के स्मारक है। वहां के पुजारी चन्देल क्षत्रिय है। हजारो मूर्तियाँ और भी खुदी हुई है । स्वर्गीय कु० महेन्द्रपाल जी के अनुसार वहा हजारो लेख है ।
इस गढ़ का इतिहास भारतीय इतिहास मे विशेष स्थान रखता है। १२०२ ई० में कुतुबुद्दीन ने यहां पर आक्रमण किया। परमाल को हराया। १५३० ई० मे हुमायू ने चढाई की। दो वर्ष निरतर युद्ध के बाद सफल हुए। फिर १५५४ ई० मे शेरशाह चढ पाया। युद्ध में घायल होकर भागा और मारा गया। रामचन्द्र वघेल का कुछ दिन अधिकार रहा । फिर सम्राट अकवर के हाथ पाया। और राजा बीरवल को जागीर मे मिला । पन्ना के महाराज छत्रशाल ने इसे मुसलमानो से जीता और अपने पुत्र हृदयशाह को जागीर मे दिया। इसी वश में अमानसिंह और हिंदूपति हुए। हिंदूपति ने अमानसिंह को मरवाया। गृहकलह का लाभ उठाकर वेनी हजूरी और कायमजी चौवे ने अधिकार किया। फिर १८१२ ई० मे अग्रेजो के हाथ पाया।
____ इस गढ के प्रत्येक पाषाण मे, वहां की मूर्तियो मे, भग्न मदिरो मे और टूटे हुए शिलालेखो में पुरातन भारत के समुज्ज्वल इतिहास की मूल्यवान सामग्री है।
(व) अजयगढ़-अजयगढ अव भी एक अलग राज्य है। अजयगढ उसी की राजधानी है। उसका किला पहाड पर है। वह अजयपाल का बनवाया है । एक के बाद एक फाटक पार करने पडते है । पाँच फाटक पार कर दर्शक वहाँ पहुंचता है। वहाँ पर पहाड को काट कर दो कुण्ड बने है और पहाड खभो पर स्थित है। यह कुण्ड गगा-यमुना कहलाते है । जल सदा रहता है । रगमहल वहां के दर्शनीय है । इनमे अच्छी कला है। भूतेश्वर के दर्शनो को परकोटा के नीचे-नीचे जाना पड़ता है। वहाँ भी दो कुण्ड है और शिलानो से पानी टपकता रहता है। यहां भूतेश्वर की गुफा है।
इनके अतिरिक्त गज (गाजरगढ), नचनौरा, चौमुखनाथ भी प्रधान प्राचीन स्थान वहां है। शिलालेख भी है।
४ दतिया के पुराने महल-दतिया झासी के उत्तर मे जी० आई० पी० की वडी लाइन पर स्टेशन है। वहाँ पर राजधानी के समीप ही लाला के ताल पर स्थित महाराज वीरसिंह देव प्रथम भोरछा नरेश का बनाया महल है। वह ठीक चौकोर है। सात मजिल का है। चारो कोनो पर चार गुम्वद है और इस चौकोर भवन के मध्य में एक भवन पाँच मजिल का है, जिसमे प्रत्येक मजिल पर चारो ओर से आने-जाने को मार्ग से वने है । उस पर पांचवां गुम्बद है। हिंदू कला और पारसीक हिंदू कला के शुद्ध और कलापूर्ण सम्मिश्रण का अद्भुत उदाहरण है। उसे कुछ ऐतिहासिको ने ईसा के क्रास के आधार पर बना कह कर पश्चिमीय कला से प्रभावित होना बताया था, पर भारतप्रेमी कलाकार स्व० डॉ० हेवेल ने इसे स्वस्तिक के आधार पर वना बताया है। उनका कथन है कि यह मध्ययुग की सर्वोत्तम कृति है । इसमें भी रगमहल है और उसमे तत्कालीन चित्रकारी है, जिससे वेष-भूषा का पता लगता है।
५. ओरछा--ओरछा स्टेशन मासी-मानिकपुर लाइन पर है। वहां से लगभग तीन मील पर ओरछा राज्य की पुरानी राजधानी है । वेतवा के तीर पर बने हुए राजप्रासाद, रामराजा का मदिर, जहांगीरी महल, लक्ष्मीमदिर, वीरसिह नरेश (प्रथम) की समाधि और चतुर्भुजजी का मदिर दर्शनीय है । दतिया के पुराने महल की प्रणाली का वीरसिंहदेव का महल है। मदिर भी तभी के है । अब ओरछा की राजधानी टीकमगढ़ है। ओरछा राज्य वुन्देलखण्ड का सबसे पुराना राज्य है । रामराजा के मदिर में भगवान रघुनाथ जी की मूर्ति विराजमान है । नाभाजी कथित भक्तमाल में उल्लेख है कि उसे श्री अयोध्या जी से महारानी ओरछा लाई थी। प्रत्येक पुष्य नक्षत्र में वह चलते थे। इस तरह सालो में आये। महारानी जी जव वृद्ध हुई, उन्हें सेवा करने में कष्ट होने लगा तो वे विराज गये। भक्त मौर