Book Title: Premi Abhinandan Granth
Author(s): Premi Abhinandan Granth Samiti
Publisher: Premi Abhinandan Granth Samiti

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Page 785
________________ प्रेमी अभिनंदन गांग ७३० उन्नत किया है । यो देखा जाय तो वे कहीं कुछ भी नहीं है । फिर भी उनका व्यक्तित्व इतना व्यापक हो गया है। कि वे सबके सब कुछ बन बैठे है । कहने को वे काग्रेस के चवन्नी सदस्य भी नही, पर-काग्रेस सारी उनमें समा गई है उनके बिना काग्रेस एक डग आगे नहीं वढा पाती। यो वे स्वयं अपने को किसी का प्रतिनिधि नहीं, मानते, पर संसार की दृष्टि में प्राज अकेले वे ही सारे भारत के सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि है। जहाँ भी, जब कभी भी, किसी राजनैतिक या साम्प्रदायिक या अन्य किसी गुत्थी को सुलझाने का प्रश्न आता है, गाधी को आगे होना पडता है। उनके बिना पत्ता नहीं हिलता। किसी महान् राष्ट्र के जीवन में एक व्यक्ति की यह ऐसी अनिवार्यता अद्भुत है । इतिहास में इसकी कोई मिसाल नहीं। इसीके कारण कुछ लोग भ्रमवश गाधी जी को भारत का निरकुश तानाशाह कहते है और उनकी तानाशाही की जी भर कर निन्दा करते हैं। पर गांधी में तानाशाही की तो बू भी नहीं है । तानाशाही का सारा इतिहास कहता है कि उसकी जड में हिंसा भरी है । बिना हिंसा के वह कहीं टिकी, बढ़ी और पनपी ही नहीं। और गाधी जी तो हिंसा के परम विरोधी है। वे तो जड-चेतन सव को परमात्मा की पवित्र कृति मानते है और अत्यन्त कोमल भाव से सव की रक्षा में सलग्न रहते है। जिसके लिए चीटी तक अवध्य है, जो उसमें भी अपने प्रभु के दर्शन करता है, वह प्रचलित अर्थ में तानाशाह कैसे हो सकता है ? जो मानवताको जिलाने और तारने आयाहै, वह तानाशाह कैसा? जो हो, इसमें कोई सन्देह नहीं कि गाधी जी की विश्वव्यापी लोकप्रियता ने उनके कई स्वार्थान्ध विरोधियो और मालोचको को मूढ बना दिया है और वे अपने तरकश के हर तीर से गाधी को नीचे गिराने की, अपनी सतह पर लाने की कोशिश में लगे हैं। पर गाधी इन सब बातो से इतना ऊपर है कि उस तक ये कभी पहुंच ही नहीं पाती। गाधी जी ने मानवता को कभी खड-खड करके नहीं देखा। अपने समय के वे सबसे बड़े समन्वयकारी व्यक्ति है। जोडना उनके जीवन का लक्ष्य है । तोड-फोड से उन्हें कोई रुचि नही। हाँ, जोडने के लिए जितनी तोड-फोड़े जरूरी है, उतनी तो वे नि शक भाव से करते ही आये है । इसमें उनके पैर कभी पीछे नहीं पडे। इस दृष्टि से देखें तो गाधी जी के जैसा कोई विध्वसक भी नही । पर उनका विध्वस भी सृजनात्मक होता है। विध्वस के लिए विध्वंस से उन्हें कोई मतलब नहीं, बल्कि वे उसके घोर विरोधी है । यह गाधी जी की ही प्रखर तपस्या का प्रताप है कि प्राज भारत का नाम विश्व के बडे-बडे देशो के नाम के साथ सम्मानपूर्वक लिया जाता है। यो विश्व के साथ भारत, को जोडने में गाधी जी को यहां का बहुत-कुछ तोडना भी पड़ा है। हिन्दुस्तान के सार्वजनिक जीवन में गाधीजी के प्रागमन से पहले यहां का सामाजिक जीवन अनेक तग कोठरियो में बन्द पड़ा था और इधर की हवा उपर पहुंच नहीं पाती थी। राष्ट्र के जीवन मे बारह कनौजिये और तेरह चूल्हे वाली मसल चरितार्थ हो रही थी। जात-पात, धर्म सम्प्रदाय, ऊँच-नीच, छूत-अछूत, अमीर-गरीव, पढ-अनपढ की अनेक अभेद्य दीवारें भारत की मानवता को सैकडो खडो में विभक्त किये हुए थी और किसी का किसी से कोई जीवित सम्पर्क नहीं था। सब एक-दूसरे के प्रभावों-अभियोगो के उदासीन दर्शक बने हुए थे। राष्ट्र का जीवन एक जगह वैध गया था और सडने लगा था। उसमें प्रवाह की ताजगी नहीं रह गई थी। गाधी जी ने दक्षिण अफ्रीका से हिन्दुस्तान आते ही इस असह्य परिस्थिति को भांप लिया और वे एक दिन की भी देर किये विना इसके प्रतीकार के यल में लग गये। उन्होने अपनी पार्षदृष्टि के सहारे भारत की सारी मानवता को उसके समग्न रूप में देखा-परखा और वे उसके सामूहिक उत्थान के लिए सचेष्ट हो गये! उनकी इसी भगीरथ चेष्टा ने राष्ट्र को अहिंसात्मक असहयोग और सत्याग्रह के महान् अस्त्र दिये और दिया वह चौदह-पन्द्रह प्रकार का रचनात्मक कार्यक्रम, जिसकी अमोघ शक्ति ने बेसुध भारत को सुध-बुध से भर दिया और उसकी विखरी ताकत को इकट्ठा करके इतना मजबूत बिना दिया कि अब ससार की कोई उद्दड से उदंड शक्ति भी उसका सामना नहीं कर सकती। भाज काश्मीर से कन्याकुमारी तक और द्वारिका से डिबरूगढ़ तक सारा भारत एक तार बन गया है, चालीस करोड नर-नारी एक साथ सुख में और दु ख में, हानि और लाभ में, एक-सा स्पन्दन अनु. भव करने लगे है, धर्म, मत, पन्थ, जात-पात, प्रान्त, पक्ष, भाषा आदि की जो दीवारें एक को दूसरे से अलग किये

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