Book Title: Premi Abhinandan Granth
Author(s): Premi Abhinandan Granth Samiti
Publisher: Premi Abhinandan Granth Samiti

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Page 800
________________ साधक प्रेमी ली ७४३ "क्या आप इन कार्य को करना पनन्द करेंगे? वेतन आप जो चाहेंगे, वह मिल सकेगा। इसके लिए कोई विवाद न होगा। "मेरी समझ में आपके रहने में पत्र की दशा अच्छी हो जायगी और आपको भी अपने विचार प्रकट करने का उपयुक्त क्षेत्र मिल जायगा। गावी जी के पास रहने का सुयोग अनायान प्राप्त होगा। "पत्र का आफिस अहमदाबाद में या बम्बई में रहेगा। "गुजराती की १५ हजार प्रतियां निकलती है। हिन्दी की भी इतनी ही या इससे भी अधिक निकलेंगी। “पत्रोत्तर शीघ्र दीजिए। भवदीय नायूराम यद्यपि पत्र का प्रारम्भ 'प्रिय महागय और अन्न भवदीय' से हुआ है, तथापि उसनेप्रेमी जो की आत्मीयता स्पष्टनया प्रकट होती है। प्रेमी जी जानते थे कि राजकुमार कालेज इन्दौर की नौकरी के कारण मुझे अपने नाहित्यिक व्यक्तित्व को विकसित करने का मौका नहीं मिल रहा था। इसलिए उन्होंने महात्मा जी के हिन्दी-'नवजीवन' के लिए मेरी निफारिग करके मेरे लिए विचारों को प्रकट करने का उपयुक्त क्षेत्र तलाग कर दिया था। खेद की वात है कि मैं उन नमय 'नवजीवन' में नहीं जा सका। मैं गुजराती विल्कुल नहीं जानता था। इसलिए मैने उस कार्य के लिए प्रयल भी नहीं किया। आगे चलकर बन्वुवर हरिभाऊ जो ने, जो गुजराती और मराठी दोनो के ही अच्छे जाता रहे हैं, बड़ी योग्यतापूर्वक हिन्दी नवजीवन' का सम्पादन किया। शायद मेरी मुक्ति को काललब्धि नहीं हुई थी। प्रेमी जी के उक्त पत्र के साल नर वाद दीनदन्यूऍडज़ के आदेश पर मैने वह नौकरी छोड़ दी और उनके मवा माल बाद महात्मा जी के आदेशानुनार मै वम्बई पहुंच गया, जहां कई महीने तक प्रेमी जी के सत्लग का मुभवमर मिला। आत्मीयता के माय उपयोगी परामर्ग देने का गुण मैने प्रेमी जी में प्रथम परिचय ने ही पाया था और फिर वम्बई में तो उन्हीं की छत्रछाया में रहा। कच्चा दूध अमुक मुसलमान की दुकान पर अन्दा मिलता है, दलिया वहाँ से लिया करो, व्हलने का नियम बम्बई में अनिवार्य है, भोजन की व्यवस्था इस ढग मे करो और अमक महाभय मे माववान रहना, क्योकि वे उवार के रुपये आमदनी के खाते में लिखते हैं। इत्यादि कितने ही उपदेश उन्होने मझे दिये थे। यही नहीं, मेरी भोजन-सम्बन्वी अनाध्य व्यवस्था को देखकर मुझे एक अन्नपूर्णा-कुकर भी खरिदवा दिया था। यदि अपने वम्बई-प्रवान ने मै नकुगल ही नहीं, तन्दुरुस्त भी लौट सका तो उसका श्रेय प्रेमी जी कोही है। वम्बई में मने प्रेमी जी को नित्यप्रति ग्यारह बारह घटे परित्रम करते देखा था । सवेरे नात से वारह वजे तक और फिर एक ने छ तक और तत्पश्चात् रात में भी घटे दो घटे काम करना उनके लिए नित्य का नियम था। उनकी कठोर सावना को देखकर आश्चर्य होता था। अपने ऊपर वे कम-ने-कम खर्च करते थे। घोडा-गाडी में भी वैठने हुए प्रेमी जी को मैने कभी नहीं देखा, मोटर की वात तो बहुत दूर रही। वम्बई के चालीन वर्ष के प्रवास के बाद भी बम्बई के अनेक भाग ऐने होगे, जहाँ प्रेमी जो अब तक नहीं गये। प्रात काल के समय घर से व्हलने के लिए सनुद-तट तक और तत्पश्चात् घर ने दुकान और दुकान से घर, वम प्रेमी जी की दौड इसी दायरे मे सोमित थो, और कभी-कभी तो टहलने का नियम भी टूट जाता था। अनेक वार प्रेमी जी का यह आदेश मुझे भी मिला था, "चौबेजी, अाज मुझे तो दुकान का बहुत-सा काम है। इसलिए आज हेम ही आपके माय जायगा।" प्रेमी जी प्रत्येक पत्र का उत्तर अपने हाथ से लिखते थे (इस नियम का वे अब तक पालन करते रहे है), फ़्फ़ स्वय ही देखतये, अनुवादो की भाषा को मूल से मिलाकर उनका नशोधन करते थे और आने-जाने वालो से बातचीत भी करते थे। वम्बई पधारने वाले नाहित्यिको का आतिथ्य तो मानो उन्ही के हिने में आया था। मैंने उन्हें सप्ताह

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