Book Title: Premi Abhinandan Granth
Author(s): Premi Abhinandan Granth Samiti
Publisher: Premi Abhinandan Granth Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 801
________________ ७४४ प्रेमी-अभिनंदन-थ के सातो दिन और महीनों के तीसों दिन बिना किसी उद्विग्नतों के काम करते देखा था। उम्र में और, अंकल में भी छोटे होने पर भी मैं उन दिनो प्रेमी जी का मजाक उडाया करता था, "आप भी क्या तेली के बैंलें । की तरह लगे रहते है, घर से दूकान और दूकान से घरं। इसे चक्कर से कभी वाहिर ही नहीं निकलते।" पर उस परिश्रमशीलता का मूल्य में आगे चल कर आंक पाया, जब मैने देखा कि उसी के कारण प्रेमी जी हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ प्रकाशक बन गये, उसी की वजह से बीसियों लेखको की रचनाएं शुद्ध छप सकी, उन्हें हिन्दी-जगत में प्रतिष्ठा मिल सकी और मातृभाषा के भडार में अनेक उपयोगी अन्यो, की वृद्धि हो सकी। प्रेमी जो प्रारम्भ से ही मितभाषी रहे है और वातून आदमियों से उनकी अक्कल बहुत चकराती है। हमारी कमी खतम न होने वाली-'हितोपदेश' के यमनक दमनक के किस्सो की तरह प्रासगिक अथवा अप्रासगिक विस्तार' से श्रोता के मगज को चाट जाने वाली बातो को सुनकर वे अनेक बार चकित, स्तब्ध और स्तम्भित रह गये है और एकाध बार बडे दवे शब्दो में उन्होने हमारे मित्रों से कहा भी है, "चौबे जी इतनी वातें कैसे कर लेते हैं, हमें तो इसी पर आश्चर्य होता है।" प्रेमी जी के विषय में लिखते हुए हम इस बातपर खास तौर पर जोर देना चाहते हैं कि अत्यन्तं साधारण, स्थिति से उन्होने अपने आपको ऊंचा उठाया है। आज का युग जन-साधारण का युग है और प्रेमी जी साधारण-जन के प्रतिनिधि के रूप में वन्दनीय है। प्रेमी जो को व्यापार में जो सफलता मिली है, उसका मूल्य हमारी निगाह में बहुत ही कम है, बल्कि नगण्य है। स्व० रामानन्द चट्टोपाध्याय ने हमसे कहा था, "यह असभव है कि कोई भी व्यक्ति दूसरो का शोषण किये बिना, लखपती बन जाय।" जब अर्थ-सग्रह के मूल में ही दोष विद्यमान है तो प्रेमी जी इस अपराध से बरी नहीं हो सकते। पर हमें यहां उनकी आलोचना नही करनी, बल्कि अपनी रुचि की बात कहनी है। हमारे लिए भाकर्षण की वस्तु प्रेमी जो का सघर्षमय जीवन ही है। जरा कल्पना कीजिए, प्रेमी जी के पिता जी टूडेमोदी घोडे पर नमक-गुड वगैरह मामान लेकर देहात में बेचने गये हुए है और दिन भर मेहनत करके चार-पांच पाने पैसे कमा कर लाते हैं। घर के आदमी अत्यन्त दरिद्र अवस्था में है। जो लोग मोदी जी से कर्ज ले गये थे, वे देने का नाम नहीं लेते। रूखा-सूखा जो कुछ मिल जाता है, उसी से सब घर पेट भर लेता है। इस अवस्था में भी यदि कोई संकटग्रस्त भादमी उधार मांगने आता है तो मोदी जी के मुंह से 'ना' नहीं निकलती। इस कारण वे कर्जदार भी हो गये थे। स्व० हेमचन्द्र - ने लिखा था "एक वार की बात है कि घर में दाल-चावल पक कर तैयार हुए थे और सब खाने को वैठने वाले ही थे कि, साहूकार कुडकी लेकर पाया। उसने वसूली में चूल्हे पर का पीतल का बर्तन भी मांग लिया। उससे कहा गया कि . भाई, थोडी देर ठहर, हमें खाना खा लेने दे, फिर बर्तन ले जाना, पर उसने कुछ न सुना। वर्तन वहीं राख में उडेल' दिय । खाना सव नीचे राख में मिल गया और वह बर्तन लेकर चलता बना। सारे कुटुम्ब को उस दिन फाका करना पड़ा।" तत्पश्चात् हम प्रेमी जी को देहाती मदरसे में मास्टरी करते हुए देखते है, जहां उनका वेतन छ सात रुपये मासिक था। उनमें से वे तीन रुपये में अपना काम चलाते थे और चार रुपये घर भेज देते थे। उनकी इस बात से हमें अपने पूज्य पिताजो को किफायतशारी को याद आ जाती है। वे पचास वर्ष तक देहाती स्कूलो में मुंदरिस रहे, और उनका औसत वेतन दस रुपये मासिक रहा। दरअसल प्रेमी जो हमारे पिता जो की पीढी के पुरुष है, जो परिश्रम तथा सयम में विश्वास रखती थी और ' जिसकी प्रशसनीय मितव्ययिता से लाभ उठाने वाले मनचले लोग उसी मितव्ययिता को कसी के नाम से पुकारते. हैं! जहाँ प्रेमी जो एक-एक पैसा बचाने की मोर ध्यान देते है वहाँ समय पड़ने पर सैकडो रुपये दान करने में भी वे.

Loading...

Page Navigation
1 ... 799 800 801 802 803 804 805 806 807 808