Book Title: Premi Abhinandan Granth
Author(s): Premi Abhinandan Granth Samiti
Publisher: Premi Abhinandan Granth Samiti

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Page 804
________________ चित्र - परिचय १- श्रद्धाजलि मनोहारी चित्र के निर्माता श्री सुवीर खास्तगीर है । इसमें चेहरे से तन्मयता और श्रद्धा के भाव स्पष्ट झलकते हैं । पद्म के रूप में मानो हृदय की ममूची श्रद्धा अजलि मे भर कर श्राराध्य के चरणी में अर्पित की जा रही है । २- पोशित भृत्तिका ( कलाकार - श्री सुधीर खास्तगीर) यह योवन की छटा ! घटा पावस की ! कर में कज, कलश में जल, चरण शिथिल यौवन- भार से । खींच दी है दृष्टि पल में भृत्तिके ! किस सुमोहन-मत्र ने ? दृष्टि-वधन में बँधी हे वन्दिनी ! खोलती यों लाज-वधन श्राज तुम ! ३ - सित्तन्नवासल की नृत्यमुग्धा अप्सरा दक्षिण की पुदुकोट्टै रियामत में सित्तन्नवासल ( जैन सिद्धाना वास ) गुफा अजन्ता की प्रसिद्ध गुफा की तरह भित्तिचित्रो से ग्रलकृत हैं । ये चित्र लगभग सातवी गती के है और राजा महेन्द्र वर्मन् पल्लव के समकालीन कहे जाते हैं । कला की दृष्टि से चित्र बहुत उत्कृष्ट है । इनमे भी पद्म-वन का चित्र और देवनृत्य करती हुई एक अप्सरा का चित्र तो बहुत ही सुन्दर हैं । नृत्यमुग्वा श्रप्सरा के प्रस्तुत चित्र में रेखाओ का कौशल और भाव व्यजना कला की चरमसीमा को प्रकट करते है । पूर्व मध्यकाल के जीवन में जो प्राणमय उल्लास था, जिमने कुमारिल और गकर जैसे कर्माध्यक्ष राष्ट्र-निर्माता को जन्म दिया और जो एलोरा के कैलास मंदिर में प्रकट हुआ, उसकी प्रजित शक्ति इस चित्र के रेखा -कर्म में भी स्पष्ट झलकती है । श्रानन्द के कारण शरीर श्रोर मन की अनूठी भावोद्रेकता नाचती हुई देवागना के रूप मे प्रकट की गई है । ४ - देवगढ का विष्णु मदिर यह मंदिर गुप्त काल की रमणीय कलाकृति है । इसके शिला-पट्टी पर जो शिल्प की शोभा है, उसमे रसज्ञ दर्शक सौन्दर्य के लोक में उठ कर अपूर्व श्रानन्द का अनुभव करता है । चित्र, शिल्प, भाषा, वेप, श्राभरण आदि जीवन के सभी गोमे सुरुचि और सयम के साथ सुन्दरता की उपामना को तत्कालीन मानव ने अपना ध्येय कल्पित किया है । कलामय मौंदर्य के अतिरिक्त इस विष्णुमदिर की एक विशेषता श्रीर है, जिसके कारण भारतीय मूर्तिकला में इसका स्थान वहुत ऊँचा है। राम और कृष्ण के जीवन की कथाओ का चित्रण भारतीय कला में सर्वप्रथम देवगढ के विष्णुमंदिर में ही पाया गया है । ३५० ई -४२५ ई० के बीच में इस मंदिर का निर्माण अनुमानत मम्राट् चन्द्रगुप्त के पुत्र भागवत गोविन्द गुप्त की सत्प्रेरणा से कराया गया था।

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