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प्रेमी जी
श्री बनारसीदास चतुर्वेदी आज से अट्ठाईस वर्ष पहले प्रेमी जी के दर्शन इन्दौर में हुए थे। स्थान का मुझे ठीक-ठीक स्मरण ,नहीं, शायद लाला जगमदिरलाल जी जज साहब की कोठी पर हम दोनों मिले थे। इन्दौर में महात्मा गान्धी जी के समापतित्त्व में सन् १९१८ में हिन्दी साहित्य-सम्मेलन का जो अधिवेशन हुआ था, उसी के आसपास का समय था। प्रेमी जी की ग्रन्थ-माला की उन दिनों काफी प्रसिद्धि हो चुकी थी और प्रारम्भ में ही उसके बारह सौ स्थायी ग्राहक बन गये थे। उन दिनो भी, मेरे हृदय में यह आकाक्षा थी कि "हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर-कार्यालय' से मेरी किसी पुस्तक काप्रकाशन हो, पर प्रमादवश में अपनी कोई पुस्तक उनकी ग्रन्था-माला में आज तक नहीं छपा सका। सुना है, जनशास्त्रो में सोलह प्रकार का प्रमाद बतलाया है । सत्रहवें प्रकार के प्रमाद (साहित्यिक प्रमाद) का प्रेमी जी को पता ही नही। इसलिए पच्चीस वर्ष तक वे इसी उम्मेद में रहे कि शायद उनकी ग्रन्थ-माला के लिए मै कुछ लिख सकूगा।
प्रेमी जी का यह वडा भारी गुण है कि वे दूसरों की त्रुटि के प्रति सदा क्षमाशील रहते है। अनेक साहित्यिकों ने उनके साथ घोर दुर्व्यवहार किया है, पर उनके प्रति भी वे कोई द्वेष-भाव नहीं रखते।
प्रेमी जी के जीवन का एक दर्शन-शास्त्र है। उसे हम सक्षेप में यो कह सकते है-खूब डट कर परिश्रम करना, अपनी शक्ति के अनुसार कार्य हाथ में लेना, अपने वित्त के अनुसार दूसरो की सेवा करना और सब के प्रति सद्भाव रखना। यदि एक वाक्य में कहें तो यो कह सकते है कि प्रेमी जी सच्चे साधक है।
पिछले भट्ठाईस वर्षों में प्रेमी जी से बीसियो बार मिलने का मौका मिला है। सन् १९२१ में तो कई महीने बम्बई में उनके निकट रहने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ था और विचार-परिवर्तन के पचासो ही भवसर मुझे प्राप्त हुए है। प्रेमी जी को कई बार कठोर चिट्टियां मने लिखीं, कई दफा वाद-विवाद में कटु आलोचना भी की और अनेक बार चाय के नशे में उनके घटे पर घटे वर्वाद किये, पर इन अट्ठाईस वर्षों में मैने प्रेमी जो को कभी अपने ऊपर नाराज या उद्विग्न नहीं पाया। क्या मजाल कि एक भी कठोर शब्द कभी उनकी कलम से निकला हो अथवा कमी भूल कर भी उन्होने अपने पत्र में कोई कटुता पाने दो हो। अपनी भाषा और भावों पर ऐसा स्वाभाविक नियंत्रण केवल साधक लोग ही कर सकते है, हाँ, कृत्रिम नियत्रण की बात दूसरी है। वह तो व्यापारी लोग भी कर ले जाते है। प्रेमी जी के आत्म-सयम का भाषार उनकी सच्ची धार्मिकता है, जब कि व्यापारियों के सयम की नीव स्वार्थ पर होती है।
प्रेमी जी का प्रथम पत्र प्रेमी जी का प्रथम पत्र, जो मेरे पास सुरक्षित है, आसोज बदी १२, संवत् १९७६ का है । सत्ताईस वर्ष पूर्व के इस पत्र को मै गहाँ कृतज्ञता-स्वरूप ज्यों-का-त्यो उद्धृत कर रहा हूँ। प्रिय महाशय,
___ तीन-चार दिन पहले मैं महात्मा गाधी जी से मिला था। आपको मालूम होगा कि उन्होने गुजराती में 'नवजीवन' नाम का पत्र निकाला है और अब वे हिन्दी में भी 'नवजीवन' को निकालना चाहते है। इसके लिए उन्हें एक हिन्दी-सम्पादक की आवश्यकता है। मुझे उन्होने आज्ञा दी कि एक अच्छे सम्पादक की मै खोज कर दूं। परसो उनके 'नवजीवन' के प्रबधकर्ता स्वामी आनन्दानन्द जी से भी मेरी भेंट हुई। मैने आपका जिक्र किया तो उन्होने मेरी सूचना को बहुत ही उपयुक्त समझा। उन्होने आपकी लिखी हुई 'प्रवासी भारतवासी' प्रादि पुस्तकें पढ़ी है।