Book Title: Premi Abhinandan Granth
Author(s): Premi Abhinandan Granth Samiti
Publisher: Premi Abhinandan Granth Samiti

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Page 797
________________ अभिनन्दनीय प्रेमी जी श्री जुगलकिशोर मुख्तार मुझे यह जानकर वडी प्रसन्नताह किश्रीमान् पडित नायूराम जी प्रेमी को अभिनन्दन-प्रथ भेंट किया जा रहा है। प्रेमी जी ने समाज और देश की जो सेवाएं की है, उनके लिए वे अवश्य ही अभिनन्दन के योग्य है। अभिनन्दन का यह कार्य बहुत पहले ही हो जाना चाहिए था, परन्तु जव भी समाज अपने सेवको को पहचाने और उनकी कद्र करना जाने तभी अच्छा है। प्रेमी जी इस अभिनन्दन को पाकर कोई वडे नही हो जावेगे-वे तो बड़े कार्य करने के कारण स्वत बडे है परन्तु समाज और हिन्दी-जगत उनकी सेवामओ के ऋण से कुछ उमण होकर ऊँचा जरूर उठ जायगा। साथ ही अभिनन्दन-अथ में जिस साहित्य का सृजन और सकलन किया गया है उसके द्वारा वह अपने ही व्यक्तियो की उत्तरोत्तर सेवा करने में भी प्रवृत्त होगा। इस तरह यह अभिनन्दन एक ओर प्रेमीजी का अभिनन्दन है तो दूसरी ओर ममाज और हिन्दी-जगत् की सेवा का प्रवल साधन है और इसलिए इससे 'एक पन्य दो काज वाली कहावत वडे ही सुन्दर रूप में चरितार्थ होती है । प्रेमी जी का वास्तविक अभिनन्दन तो उनकी सेवायो का अनुसरण है, उनको निर्दोष कार्य-पद्धति को अपनाना है, अथवा उन गुणो को अपने मे स्थान देना है, जिनके कारण वे अभिनन्दनीय वने है। प्रेमी जो के माय मेरा कोई चालीस वर्ष का परिचय है । इस प्रम में उनके मेरे पास करीब सात सौ पन आए हैं और लगभग इतने ही पत्र मेरे उनके पास गए है। ये सब पत्र प्राय जैन साहित्य, जैन-इतिहाम और जनसमाज की चिन्तामो, उनके उत्थान-पतन की चर्चाओ, अनुसवान कार्यों और सुधारयोजनायो आदि से परिपूर्ण है । इन पर से चालीस वर्ष को सामाजिक प्रगति का सच्चा इतिहास तैयार हो सकता है । सच्चे इतिहास के लिए व्यक्तिगत पत्र वही ही काम की चीज होते हैं। सन् १९०७ में जब मै साप्ताहिक 'जैन-गजट' का सम्पादन करता था तव प्रेमी जी 'जैनमिन', वम्बई के आफिस में क्लर्क थे। भाई शीतलप्रसाद जी (जो वाद को ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद जी के नाम से प्रसिद्ध हुए) के पत्र से यह मालूम करके कि प्रेमी जी ने 'जैनमित्र' की क्लर्की से इस्तीफा दे दिया है, मैने अक्तूबर मन् १९०७ के प्रथम सप्ताह में प्रेमी जो को एक पत्र लिखा था और उसके द्वारा उन्हें 'जनगजट' आफिस, देववन्द में हेड क्लर्की पर आने की प्रेरणा की थी, परन्तु उस वक्त उन्होने वम्बई छोडना नही चाहा और वे तव से बम्बई में ही बने हुए है। ८ जनवरी सन् १६०८ के जनगजट' में मैने 'जनमित्र' की, उसके एक आपत्तिजनक एव आक्षेपपरक लेख के कारण, कडी आलोचना की, जिससे प्रेमी जी उद्विग्न हो उठे और उन्होने उसे पढते ही १० जनवरी सन् १९०८ को एक पत्र लिखा, जिससे जान पडा किप्रेमीजी का सम्बन्ध 'जनमित्र' से बना हुआ है। समालोचना की प्रत्यालोचना न करके प्रेमी जी ने इस पत्र के द्वारा प्रेम का हाथ बढाया और लिखा-"जबसे 'जैनगजट' आपके हाथ में आया है, जैनमित्र' वरावर उसकी प्रशसा किया करता है और उसकी इच्छा भी मापसे कोई विरोध करने की नहीं है।'' जो हो गया सो हो गया। हमारा समाज उन्नत नहीं है, अविद्या बहुत है, इसलिए आपके विरोध से हानि की शका की जाती है। नहीं तो आपको इतना कष्ट नहीं दिया जाता। आप हमारे धार्मिक बन्धु है और आपका तथा हमारा दोनो का ध्येय एक है। इसलिए इस तरह शत्रुता उत्पन्न करने की कोशिश न कीजिए। 'जैनमित्र' से मेरा सम्बन्ध है। इसलिए आपको यह पत्र लिखना पडा।" इस पत्र का अभिनन्दन किया गया और १५ जनवरी को ही प्रेमपूर्ण शब्दो में उनके पत्र का उत्तर दे दिया गया। इन दोनो पत्रो के आदान-प्रदान से ही प्रेमी जी के और मेरे बीच मित्रता का प्रारम्भ हुआ, जो उत्तरोत्तर वढती ही गई और जिससे सामाजिक सेवाकार्यों में एक को दूसरे का सहयोग बरावर प्राप्त होता रहा और एक दूसरे पर अपने दुख-सुख को भी प्रकट करता रहा है ।

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