Book Title: Premi Abhinandan Granth
Author(s): Premi Abhinandan Granth Samiti
Publisher: Premi Abhinandan Granth Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 796
________________ एक कलाकार का निर्माण ग़लती का भान हो गया था । " नन्दलाल की कल्पना के बीच में पडने वाला मैं कौन हूँ । नन्दलाल ने उग्रतप-निरता उमा की कल्पना की थी । इसीलिए उसका रग-विधान कठोर होना ही चाहिए था । उसे मैं अपने सुझावो से खराव कर रहा था।" ७३६ उन्होने अपने शिष्यो को सारे हिन्दुस्तान में इवर-उवर बिखरे हुए प्राचीन चित्रो, मूर्तियों और स्थापत्य के स्मारको का अध्ययन करने के लिए प्रोत्साहित किया । इस अनुशीलन का हेतु था कि उन्हें प्रेरणा मिले । इसे कभी श्रात्मप्रकटीकरण में वावक मिद्ध होने नही दिया गया। अपने शिष्यो को कला के नये प्रदेश जीतने में उन्होने कभी अनुत्साहित नही किया । उन्होने स्वय पाश्चात्य प्रभाव से हट कर भारतीय शैली को पूर्ण रूप से अपनाया था। तो भी वे " युरोपियन अथवा प्राचीन भारतीय कला के वन्चन को न मानने वाली वर्तमान स्वस्थ मानस-गति में विक्षेप करना नही चाहते थे”, जैमा कि भारतीय कला के एक यूरोपियन अभ्यासी ने ययार्थ ही कहा है । वे इसीलिए अपने शिष्यो को इतनी स्वतन्त्रता दे सके, क्योंकि उन्हें विकामोन्मुख कलियो में, इतने समृद्ध रूप में प्रकट हुई पुनरुज्जीवित भारतीय कला की प्रमुप्त शक्ति में नम्पूर्ण विश्वास और श्रद्धा" थी । भारतीय गुरु की यह परिपाटी विश्व-भारतीकला-भवन के केन्द्र मॅ, जिसका सचालन उनके प्रधान शिष्य श्री नन्दलाल वसु निष्ठा-पूर्वक कर रहे है, खूब पनप रही है । यह तो हुआ प्रेरक और मार्गदर्शक अवनी बाबू के विषय में । शिल्पी अवनी बाबू ने अपनी प्रेरणा को रूप देने में, उन्ही के अपने शब्दो में "एक के बाद एक श्रमफलता" का सामना किया है । "हृदय की व्यथा से मैने क्याक्या दुख नही महा है, और ग्रव भी मह रहा हूँ ।" पर यह सभी कलाकारो के भाग्य में होता है । जैसे श्रात्मा शरीर से अवरुद्ध है, उसी प्रकार प्रेरणा अपूर्णता से आवद्ध है । केवल एक या दो वार पूर्णता से होने वाले इस परमानन्द का उन्हें अनुभव हुआ है । वे कहते हैं, "चित्रावली को चकित करते समय पहली बार मुझे इस श्रानन्द का अनुभव हुआ था । मुझ में और चित्र के विषय में पूर्ण एकात्मता सघ गई थी । कृष्ण की बाललीला जैसे मेरे मन की आँखो के मामने हो रही हो । मेरी तूलिका स्वयं चलने लगती और चित्र मम्पूर्ण रेखा और रंगो में चित्रित होते जाते ।" दूसरी बार जब वे अपनी स्वर्गीया माता के, जिनके प्रति श्रवनी बाबू की अनन्त भक्ति थी, मुख को याद करने का प्रयत्न कर रहे थे तव उन्हें इसी प्रकार का अनुभव हुआ था । "यह दृष्टिकोण पहले तो ज़रा बुंधला सा था और माँ का मुख मुझे वादलो से घिरे अस्तोन्मुख सूर्य मा लगा । इसके वाद मुखाकृति धीरे-धीरे इतनी स्पष्ट हो गई कि अङ्ग-प्रत्यङ्ग के साथ उद्भासित हो उठी। फिर मुखाकृति मेरे मन पर अपनी स्थिर छाप छोड कर धीरे-धीरे विलीन हो गई। मेरे किये गये मुखो के अध्ययन में चित्रो में सबसे अच्छा निरूपण इसका ही है ।" ऐसे अनुभव इने-गिने लोगो के लिए भी दुर्लभ होते हैं । अवनी बाबू की उमर इस समय सत्तर से भी अधिक है । वे अव नये क्षेत्र में काम में तत्पर है। सर्जन की प्रेरणा उनमें विद्यमान है, नही तो उनका शरीर निष्प्राण हो गया होता । निस्सन्देह वे जीवन से अवकाश ग्रहण कर चुके हैं, लेकिन रहते है अपने सर्जन के अन्त पुर में ही । वाहर की वैठक अव उजड गई है । समालोचको की चर्चाएँ वन्द हो गई है । अतिथि अभ्यागत विदा ले चुके है, उत्सवे ममाप्त हो गया है और वत्तियाँ वुझ गई है । अन्त पुर में जहाँ किमी का भी प्रवेश नहीं है - वे कला की देवी के साथ खेल रहे हे । उपहार हे खिलोने, लेकिन वे इतने बहुमूल्य है कि समालोचको अथवा अतिथियों के लिए स्तुति या आश्चर्य - मुग्ध होने के लिए बाहर की बैठक मे नही भेजे जाते । "माँ की गोद में वापिस जाने की तैयारी का समय आ पहुंचा है और इसलिए में एक बार फिर वालक बन कर खेलना चाहता हूँ ।" अथवा नन्दवावू के गब्दो मे "अव वे दूरवीन के तालो को उलटा कर देखने में व्यस्त है ।" कुछ भी हो, भगवान् करे उनकी दृष्टि (Vision) कभी घुंवली न हो और खेल निरतर चलता रहे । ( अनुवादक - श्री शकरदेव विद्यालकार)

Loading...

Page Navigation
1 ... 794 795 796 797 798 799 800 801 802 803 804 805 806 807 808