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प्रेमी-अभिनंदन - प्रथ
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पास बिठाकर श्री अवनीन्द्र चित्र बनाते हुए विचित्र माध्यमो द्वारा परीक्षा करके पढाई और कला-चर्या द्वारा दिन भर काम में जुटे रहते थे । स्वदेशी आन्दोलन के प्रारंभिक दिनो मे अवनी बाबू ने अपने चाचा श्री रवीन्द्रनाथ के पथप्रदर्शन में सच्चे हृदय से काम किया । अन्त में उचित कारण से ही उन्होने अपने को आन्दोलन से अलग कर लिया । तो भी उन्होने स्वदेशी भावना का त्याग नही किया था । अपने नये स्कूल में उन्होने ऐसे माध्यम की स्थापना की, जिससे भारत के सास्कृतिक पहलू का सम्बन्ध है | आर्ट स्टूडियो में उन्ही दिनो हावी हुए भारतीय देवी-देवताओ के अशुद्ध रूप से वे घवरा उठे। उन्होने अपने शिष्यो को इस विषय मे सामान्य जनता की अभिरुचि को शिक्षित करने का आदेश दिया । शिष्यो को रामायण और महाभारत के पात्रो से परिचित करवाने के लिए एक पडित की नियुक्ति की गई और सारे देश में पौराणिक श्राख्यानो का निरूपण करने वाले विविध मूर्तिस्वरूपो की वडे श्रध्यवसाय के साथ खोज प्रारंभ हुई। शिष्यो द्वारा इस सरणी पर तैयार किये गये चित्रो ने जन-सामान्य को उन दिनो इतना प्रोत्साहित किया कि जिसकी स्वप्न में भी कल्पना न थी । निस्सन्देह सामान्य जनता चित्रो के गुणो को समझने में असमर्थ थी तो भी उसने अनुभव किया कि आखिर 'अपनी' कहने लायक वस्तु उसे मिल गई और जिसमे उसकी श्रात्म-प्रतिष्ठा कापुन उद्धार हो गया । अवनी वावू द्वारा प्राचीन शिल्प-सम्प्रदाय के विषय में लिखी पुस्तको और विभिन्न पत्रपत्रिकाओ मे दिये गये लेखो ने भी इस विषय की अच्छी भूमिका तैयार कर दी थी। चारो ओर से श्राशीर्वादो की वर्षा के साथ विशिष्ट जनो के श्राश्रय में प्राच्य कला समिति ( Oriental Art Society) की स्थापना हुई । शिल्पस्वामी के शब्दो में कहे तो "कोश के पन्नो में निरुद्ध भारतीयकला श्रव हरेक के मुंह में बस गई ।" लगभग इन्ही दिनो अवनी बाबू की शिल्प-प्रवृत्ति एक नई दिशा की ओर मुडी। बाहर से तो यह नवीन ही मालूम होती थी, पर वस्तुत यह प्रवृत्ति भारतीय परम्परा को जीवन के हरेक क्षेत्र में लाने के सुसगत विकास रूप ही थी। वे हरेक वस्तु को 'स्व-देशीय' बनाना चाहते थे । और ऐसा क्यो न हो ? शिक्षित वर्ग की प्रादतें भद्दे ढंग से अपनाई गई पाश्चात्य सस्कृति को अपने ऊपर लादने के कारण इतनी बदल गई थी कि यह श्रद्भुत मिश्रण पहचाना भी नही जाता था । अवनी बाबू ने इन सब को बदलने का निश्चय किया। राजसी ठाठ वाट वाले ठाकुरो के महलो से पुराना कीमती यूरोपीय फर्नीचर एकदम वाहर कर दिया गया और उसके स्थान पर भारतीय रीतिरिवाजो और प्राकृतिक श्रवस्थाओं के अनुकूल सिद्ध होने वाले स्वयं अपने ही निरीक्षण में बनवाये फर्नीचर के विभिन्न नमूने लगवाये । स्थापत्य के नमूने, भवन और रंगशाला की सज्जा- वेशभूषा, चित्रो के फ्रेम छोटे से लेकर वडे तक किसी की उपेक्षा किये बिना सब पर उन्होने व्यक्तिगत ध्यान दिया । नवजाग्रत भारतीय सौन्दर्य-ज्ञान श्रात्मज्ञान के यथायं पक्ष पर प्रवृत्त करना ही उनका मुख्य उद्देश्य था । भारत के विभिन्न स्थलो पर अच्छे पदो पर प्रतिष्ठित उनके शिष्यो ने उनके द्वारा इस दिशा में दिखाये गये पथ का श्रद्धा और निष्ठा के साथ अनुसरण किया ।
वास्तव में इस शिल्प- स्वामी की सबसे बडी देन ही यही है कि उन्होने अपने सम्प्रदाय को श्रागे ले जाने वाले एक शिल्पी मण्डल का सर्जन किया। इन कलाकारों में से कुछ ने (उदाहरण के लिए दो का ही नाम लेते हैं श्री नन्दलाल और श्री असित कुमार हल्दार ने) कला-स्वामी का पद अधिकार- पूर्वक ही पाया है। अवनी बाबू की शिक्षण-पद्धति उन्ही के शब्दों में यह है "किसी वस्तु को दूसरे पर लादने की जरूरत नही । सनातन काल से चले आये पाठो को सिखाने से भी कोई लाभ नही । केवल उनके पथ की वाघात्रो को हटा दो, जिससे उन की प्रतिभा को निर्वाध होकर खिलने का अवसर मिल सके।" लेकिन इसके लिए प्रतिभा का होना श्रावश्यक हैं, साथ ही चतुर्मुखी सस्कारिता भी जरूरी है । इन थोडे से शिल्पकारो को भारत के शिल्प-आन्दोलन का श्रेय प्राप्त है । अपनी शिक्षण-पद्धति को समझाने के लिए अवनी बाबू स्वय एक कथा कहा करते है कि किस प्रकार जव उन्हे नन्द बाबू का 'उमा का परिताप' नामक चित्र, जो तभी से बडा प्रसिद्ध हो गया, दिखाया गया तो उन्होने चित्र में थोडे से परिवर्तन सुझाये, लेकिन घर जाने पर वे बेचैन हो गये । वे स्वय कहते है, "मैं सारी रात सो नही सका ।" दिन उगते ही अपने शिष्य के स्टुडियो
दौडे गये और अन्त में चित्र को खराब होने से बचाया। उन्होने स्वीकार किया है कि यथासमय ही उन्हें अपनी