________________
एक निर्माण [शिल्पगुरु श्री अवनीन्द्रनाथ ठाकुर की शिल्प-साधना]
श्री कांति घोष
"कलाकार बनने में छ महीने से अधिक की आवश्यकता नही, बशर्ते कि शिक्षार्थी मे कला-प्रतिभा हो।" भारतीय पुनर्जागरण के प्राचार्य श्री अवनीन्द्रनाथ ने कला-भवन के विद्यार्थियो-अपने शिष्य के शिष्यो-के साथ वातचीत करते हुए ये वाक्य कहे। उस समय वे अपने पिछले जमाने के स्वानुभव का स्मरण कर रहे थे। “अध्यापक अपने विद्यार्थियो के काम में दखल दे, इसमें मुझे प्रास्था नही है । अध्यापक को केवल राह दिखानी चाहिए, अपने विद्यार्थियो को हठात् किसी ओर विनियुक्त करने का प्रयत्न न करना चाहिए। ऐसा करना बडा घातक सिद्ध होगा। उसे अपने विचारो और कार्य-पद्धति को विद्यार्थियो पर लादना नही चाहिये । विद्यार्थियो को अपने ही ढग से शक्ति विकसित करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए।" अवनी वाबू ने स्वय भी श्री नन्दलाल और अपने अन्य शिष्यो के साथ इसी सिद्धान्त का अनुसरण किया था, जिसका परिणाम आज सारी दुनिया जानती है । "लेकिन विद्यार्थियो कोऐसा आभास रहना चाहिए कि गलती होने पर उसे संभालने के लिए उनके पीछे कोई और है। इसका आश्वासन स्वय अध्यापक की ओर से मिलना चाहिए।"
उन्हे स्मरण हो पाया कि किस प्रकार बहुत पहले, जब वे नवयुवक ही थे, उनके चाचा कवि ने बच्चो के लिए कहानी लिखने की सलाह देते हुए कहा था-"जैसे (कहानी) कहते हो, वैसे ही लिखो।" उन्होने यह भी कहा था, “इन कहानियो को सुघड बनाने में यदि ज़रूरत हुई तो में सहायतादूगा।" पहली कहानी लिखी गई-'शकुन्तला कथा'। रवि काका ने सारी कथा ध्यानपूर्वक देखी। एक सस्कृत श्लोक पर उनकी सम्पादकीय कलम रुकी और फिर बेरोक आगे बढ गई। कहानी सफल सिद्ध हुई और यह सफलता एक ऐसे स्थान से प्रमाणित हुई, जिससे उन्हें अपनी शक्ति पर भरोसा करने में सहायता मिली। उन्हें प्रात्म-विश्वास हुआ और तब से अवनी बाबू की कलम से एक के बाद एक कहानी-निवन्ध और कविता भी–निकलते गये, जिनका वगाली-साहित्य में अप्रतिम स्थान है ।
तो भी उनकी कला-शिक्षा बहुत सरल न थी। उन दिनो 'भारतीय कला' नाम की कोई वस्तु ही नहीं थी। अजन्ता यदि कल्पना नही तो स्मृति का विषय ही था। दक्षिण से श्री रविवर्मा कलकत्ता आर्ट-स्टुडियो से मिलकर ग्राम्य अभिरुचि को मुग्ध करने वाली शैली द्वारा भारत की कला-क्षुधा को शान्त करने का श्रेय प्राप्त कर रहे थे। यह शैली भारतीयता से विमुख थी। इसी समय अवनी वाबू ने शिक्षण प्राप्त करने का निश्चय किया। उनका ध्यान उस समय प्रचलित युरोपीय कला की ओर आकर्षित हुआ। इसके सिवाय और कोई रास्ता ही न था।
दो यूरोपियन अध्यापको ने, एक के बाद एक, उन्हें जीवित मॉडल का अकन और तैल चित्र-विधान का अपना सम्पूर्ण ज्ञान दिया। उसके बाद उन्हें शरीर-विज्ञान के अध्ययन की सलाह दी गई। लेकिन एक बहुत असामान्य अनुभव के बाद उन्हें यह छोड देना पडा । अनुशीलन के लिए लाई गई मनुष्य की खोपडी से उन्हें बडा विचलित और विभीषिका-पूर्ण अनुभव हुआ। उसकी प्रतिक्रिया के कारण वे अस्वस्थ हो गए और कुछ समय के लिए उन्हें अभ्यास छोड देना पडा । अन्त में एक प्रसिद्ध नॉर्वेजियन पाया, जिससे उन्होने रग-चित्र (Water colour) की कला सीखी।
चित्राधार (Easal) और रग-पेटी को झोले में डाले प्राकृतिक दृश्यो की खोज में उन्होने मुगेर तथा अन्य स्थानो की यात्रा की। परिणामत उन्हें यूरोपियन कला में विशेष प्रवीणता प्राप्त हुई।