Book Title: Premi Abhinandan Granth
Author(s): Premi Abhinandan Granth Samiti
Publisher: Premi Abhinandan Granth Samiti

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Page 788
________________ विश्व-मानव गांधी ७३३ न की, जनता ने सहन करने मे कमी न रक्खी। आखिर सरकार को जांच कमीशन बैठाना पड़ा और कमीशन ने जनता की मांग को उचित वताया। जनता की जीत हुई। सरकार फिर हारी। फिर सन् ३० का जमाना आया। रावी के तट पर ३१ दिसम्वर १९२६ की रात को देश सम्पूर्ण स्वतन्त्रता की प्रतिज्ञा कर चुका था। इस सम्पूर्ण स्वतन्त्रता की प्राप्ति के लिए गाधी जी ने देश को फिर जगाया। सत्याग्रह का बिगुल वजा। गाधी जी १२ मार्च १९३० के दिन स्वतन्त्रता का वरण करने निकल पडे । दोसौ मील पैदल चलकर अपने अस्सी साथियो के साथ दांडी पहुंचे। वहां उन्होने खुल्लमखुल्ला नमक का कानून तोडा और देश भर में नमक-सत्याग्रह की धूम मच गई। एक तरफ निहत्थी जनता के उमडते हुए जोश का ज्वार था और दूसरी तरफ दमन और उत्पीडन के लिए अधीर हुई सरकार का पशुवल जनता के इस जोश को कुचलने मे लगाया। लाखो जेल गये। हजारो घायल हुए। सैकडो शहीद बने। देश में एक तूफान खडा हो गया। सरकार चौंकी। डरी। उसने ममझौते का हाथ वढाया। गाधी-इरविन समझौता हुआ और गाधी जी देश के प्रतिनिधि बन कर लन्दन की गोलमेज परिषद् में शामिल हुए। भारत की निहत्थी जनता की यह सबसे बडी नैतिक विजय थी। इसने भारत का नाम ससार में चमका दिया । २८ दिसम्बर '३१ को गाधी जी विलायत से लौटे और सरकार की हठधर्मी के कारण ३१ दिसम्बर को उन्हें फिर देशव्यापी सत्याग्रह की घोषणा करनी पड़ी। ४ जनवरी '३२ को सरकार ने गाधी जी को गिरफ्तार कर लिया और देश में सत्याग्रह दावानल की तरह भडक उठा। सरकार भी अपने पशुवल के साथ सन्नद्ध हो गई और सघर्ष तीव्र हो उठा। आखिर मई '३३ मे गाधी जी ने सामूहिक सत्याग्रह को स्थगित किया और उसकी जगह व्यक्तिगत सत्याग्रह चलाया। जुलाई '३४ के बाद यह भी समाप्त हुआ। देश ने बहुत महा था, वहुत खोया था। उसे जरा सुस्ताने की, संभलने की जरूरत थी। गाधी जी ने इस जरूरत को महसूस किया और देश को जरा दम लेने का मौका दिया। इसके बाद १९३६ मे दूसरा महायुद्ध शुरु हुआ और '४० के अक्तूवर मे गाधी जी ने देश को फिर व्यक्तिगत सत्याग्रह के लिए पुकारा। उनकी पुकार पर देश के तीस हजार सत्याग्रहियो ने जेल-यात्रा की और सरकार सोच में पड गई। १९४१ के दिसम्बर में उसने आम रिहाई कर दी और काग्रेस ने फिर सत्याग्रह नही छेडा । इस तरह भिडन्त पर भिडन्त होती रही। जनता दिन-दूनी रात चौगुनी शक्तिसम्पन्न होती गई। उसका आत्मविश्वास बढा । उसके तप-तेज में वृद्धि हुई और वह भीषण सत्वपरीक्षा के लिए तैयार बनी। इस बीच ससार में अनेक उथल-पुथल हुईं। जर्मनी ने रूस तक धावा बोला। जापान ने पर्ल हॉर्वर से लेकर ब्रह्मा तक के सब देशो पर अपना झडा गाड दिया। साम्राज्यशाही के होश गुम हो गये। सरकार सिटपिटाई । उसने सर स्टफर्ड क्रिप्स को भेजा। उनकी वात किसी के गले नही उतरी। देश मे और देश के बाहर भारतवासियो की स्थिति उत्तरोत्तर विकट होने लगी । सरकारी दमन शुरू हो गया। शोषण-उत्पीडन की अवधि हो गई। काग्रेस यह सव चुपचाप देख न सकी। गाधी जी से रहा न गया। उन्होने देश को नये सघर्ष के लिए तैयार किया और 'भारत छोडो' के नारे से सारा देश गूज उठा। ८ अगस्त '४२ को 'भारत छोडो' का वह प्रसिद्ध प्रस्ताव पास हुआ और ६ अगस्त के दिन सरकार की बर्बरता देश में सर्वत्र खुल कर खेली। नेता सव वन्द कर दिये गये। दमन की चक्की चल पडी। देश का नया खून इम विभीषिका के लिए तैयार न था। वह इस चुनौती का मुकाबला करने को तैयार हो गया और तीन साल तक विना हारे, विना थके, विना डरे, वरावर मुकावला करता रहा। देश ने रावण-राज्य और कम-राज्य के प्रत्यक्ष दर्शन किये। बगावत की एक प्रचड आँधी ने देश को ओर-छोर से झकझोर दिया। दुनिया दहल उठी। सरकार को खुद अपनी करतूतो पर शरम आने लगी। गाधी जी इस वार भी नहीं झुके। उन्होने इक्कीस दिन का उपवास करके देश और दुनिया की सोई हुई चेतना को जगाने का पावन प्रयास किया, सरकार के आसुरी भाव को हततेज किया, अपने महादेव और अपनी वा को खो कर भी वे अविजेय बने रहे, उनकी नीलकठता ने देश में उनके प्रति अनुरक्ति और भक्ति की एक प्रचड लहर उत्पन्न कर दी, सरकार ने बहुत चाहा कि लोग गाधी को भूले, पर उसके सव हथकडे वेकार सावित हुए और आखिर उसे परास्त होना पडा । उसने गाधी को जेल से छोडा। काग्रेस की कार्यसमिति को वन्धनमुक्त किया और

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