Book Title: Premi Abhinandan Granth
Author(s): Premi Abhinandan Granth Samiti
Publisher: Premi Abhinandan Granth Samiti

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Page 791
________________ प्रेमी-अभिनंदन ग्रंथ ७३६ शिक्षा तो पूर्ण हुई, लेकिन उनकी तूलिका ने कमी विनाम नहीं लिया। चित्र बनते जाते थे और उन्हें प्रतिष्ठा भी प्राप्त होती जाती थी, पर वे सन्तुष्ट नहीं थे। निराशा उनके मन में घर करने लगी। "मैं वेचैन हो उठा था। अपने हृदय में मुझे एक व्याकुलता का अनुभव होता था लेकिन मैं उसका स्पष्ट निरूपण नहीं कर पाता था। विस्मय-विमूढ होकर मै कहता-आगे क्या हो?" सम्भवत यह सर्जक प्रवृत्ति ही थी, जो अपने को व्यक्त करने के लिए उपयुक्त माध्यम ढूढ़ रही थी। लगभग इसी समय उनके हाथ में कला केदो नमूने आ पडे, जिन्होने उनके अवरुद्ध मार्ग को खोल दिया। क्रमश उनमें से एक तो मध्यकालीन यूरोपीय शैली में चित्रित 'आइरिश मैलॉडी' का चारो ओर से भूषित चित्र-सग्रह था और दूसरा सुनहले-पहले रगों से मडित उत्तर मुगलकालीन शैली में अंकित दिल्ली का चित्र-सम्पुट । उन्हें यह जान कर आनन्द के साथ आश्चर्य भी हुआ कि दोनों के अपने विधानो के निर्वाह में आधारभूत प्रभेद कोई नही था । उन्होने इस नव प्राप्त विधान को प्राजमाने के लिए भारतीय, विषय खोजने प्रारमें किये। श्री रवीन्द्रनाथ के अनुरोध से वे विद्यापति और चण्डीदास के वैष्णव गीतो को अकित करने लगे। पहला चित्र, जिसमें अभिसार को जाती हुई राधा को प्रदर्शित किया गया था, असफल रहा,। उसका निर्वाह सदोष था और अनजाने ही उसमें यूरोपियन प्रभाव झलक पाया था। "मैंने चित्र को ताले में बन्द कर दिया, लेकिन मन में कहा कि प्रयत्न करता रहूंगा।" एक प्रवीण भारतीय कारीगर को उन्होने चित्रसज्जा-विधान सीखने के लिए बुलाया। उसके बाद काम सरल हो गया। उन्होने वैष्णव पदावली को समाप्त कर वैतालपचीसी हाथ में ली और फिर बुद्धचित्रावली तथा अन्य चित्रो को पूरा किया। सर्जन-प्रवृत्ति को निकलने के लिए, एक राह मिल गई और,अवनी वावू. को भारतीय पुनर्जागरण में श्रद्धा प्राप्त हुई। इस शिल्प-स्वामी के जीवन में यह समय सबसे अधिक उपलब्धिपूर्ण था, "मैं कैसे बताऊँ कि उस सारे समय मे मै क्या अनुभव करता था। मैं चित्रो से भरपूर रहता था,ऐसा ही कुछ कह सकता हूँ। चित्रोने मेरी सम्पूर्ण सत्ता को अधिकृत कर लिया था। मै केवल अपनी आँखें वन्द करता कि चित्र मेरे मन के सामने उतराने लगतेआकृति, रेखा, रग, छाया सम्पूर्ण रूप में। म हाथ में तूली उठा लेता और जैसे चित्र स्वय वनते जाते।":सर्जन के उन दिनो में भी छिद्रान्वेषी समालोचको का प्रभाव नहीं था। एक प्रसिद्ध वैष्णव प्रकाशक राधाकृष्ण चित्रावली को देखने के लिए आये। चित्रो को देख कर उन्होने स्पष्ट रूप से निराशा प्रकट की। क्या यह राधा है। क्या शिल्पी उसे जरा अधिक मासल और कोमल नहीं बना सकता था ? "यह सुन कर मै पाश्चर्य से स्तम्भित रह, गया, लेकिन एक क्षण के लिए ही। ये वचन मुझ पर कोई प्रभाव नहीं छोड गये।" कुछ समय में सब यूरोपियन प्रभावो से पूरी तरह मुक्त होकर वे अपने ढग से सावधानी के साथ चित्र बनाते गये। "मोह, वे भी दिन थे!", ' लेकिन वे दिन भी सहसा समाप्त हो गये। शिल्पी के जीवन में एक वडा विषाद का अवसर प्राया। मारे परिवार को लाडली, उनकी दस बरस की लड़की कुछ समय से कलकत्ते में फैली महामारी में प्रवसन्न हो गई। उसकी मृत्यु से उन्हें वडा आघात पहुंचा। मन को किसी प्रकार समाधान ही नहीं मिलता था । बाह्य-उपचारो से कोई भी लाभ नहीं हुआ। लाभ हुआ तो श्री० हैवल की सलाह से। हवल,उन्हे उनके चाचा श्री सत्येन्द्रनाथ के घर पहली बार मिले। उन्होने कहा, "अपने काम को हाथ में उठा लो। यही एकमात्र दवा है।" सयोग ने ही इन दो समान-धर्मी प्रात्मानो को मिलाया था। यह सम्मिलन, जैसा कि हम आगे देखेंगे, भारत के सास्कृतिकादृष्टिकोण में हलचल मचाने वाला सिद्ध हुआ। आगे जाकर हैवल के विषय में वे अपने छात्रो से कहा करते थे, "उन्होने मुझे उठा लिया और घड दिया। उनके प्रति मेरे मन में हमेशा गुरु जैसा आदर-भाव रहा है ? कमी-कभी वे विनोद में मुझे अपना सहकर्मी भोर कमी शिष्य कहा करते थे। सचमुच वे मुझसे अपने भाई-सा स्नेह करते थे। तुम जानते हो, नन्दलाल के प्रति मेरा कितना गहरा स्नेह है, लेकिन हवल का स्नेह उससे भी अधिक गभीर था ।। funny श्री हैवल ने अवनी बाबू से कला-शाला का उपाध्यक्ष होने को कहा, जिसे अवनी बाबू ने अस्वीकार कर दिया। उन जैसे शिल्पी को सरकारी सस्था चला कर क्या करना था। इसके सिवाय पढ़ाने की भी बात थी और

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