________________
प्रेमी अभिनंदन - प्रथ
उस्ताद बोले, "जी हाँ, परन्तु घमंड नही करना चाहिए । वुजुर्ग घमड को बुरा कह गए है । जो लोग उनकी बात को नही मानते, मुंह की खाते है । गवैये के गले का साथ भला तबला बजाने वाले का हाथ कैसे कर सकता है ? आपका दोष नही, दोष घमंड का है ।"
५६६
प० गोपालराव ने भी फटकारा । तवलिया बिलकुल ढल चुका था । उसी नम्रता के साथ उसने पूछा, "उस्ताद, में प्रव भी बहुत कोशिश करने पर ताल नही समझा। बतलाइए, कौन-सा ताल था ? श्राप कहते है कि इसको प्राय जाता हूँ। मैं कहता हूँ कि मैने इसको पहले कभी बजाया ही नही ।"
उस्ताद ने तम्बूरा हाथ मे लिया । वोले, "बजाओ । तिताला है ।"
" तिताला 1" अचानक प्रनेक कठो से निकल पडा। "तिताला " प्राश्चर्य में डूब कर तवलिये ने भी कहा । वोला, “देखू ।”
उस्ताद ने उसी विलम्वित लय मे उसी स्याल को फिर गाया । अव तबलिये ने अच्छी तरह उनका साथ दिया। एक बार भूतपूर्व इन्दौर नरेश (श्री तुकोजीराव होलकर) ने उस्ताद प्रादिलखों को उनके तालज्ञान के पुरस्कार में पाँच सौ रुपये भेंट किये थे ।
उस्ताद के गायन का एक चमत्कार मैने स्वय एक बार अनुभव किया। रात का समय था। हम तीन-चार श्रादमी घर बैठे थे । उनमे से एक गायनवादन के प्रेमी होते हुए भी जानते कुछ नही थे । मैने उस्ताद से देश गाने के लिए प्रार्थना की। उन्होने उम रात देश इतना वढिया गाया कि न तो उनसे ही कभी ऐसा सुना और न किसी और गवैये से । वात यो हुई । देश मे तीव्र निषाद का स्वर भी लगता है । उस्ताद ने उस रात तीव्र निपाद इतना सम्पूर्ण, इतना सजग और इतना सजीव गाया कि हम लोग सब एकदम बिना किसी भी प्रयास के यकायक " श्रोह" चीख कर अपने आसनों से उठ गए और वैसी ही "प्रोह" उस्ताद के भी मुँह से निकल पडी । फिर उसी प्रकार की निपाद लगाने के लिए उनमे कहा, परन्तु प्रयत्न करने पर भी वह सफल नही हुए ।
मुझको लगभग एक युग पहले कविता करने का व्यसन था । उसमे श्रपने को नितान्त असफल समझ कर छन्दोभग और रसविपर्यय का प्रयास सदा के लिए त्याग दिया, परन्तु दो-एक कविताएँ कही लिखी पडी थी । उस्ताद को मालूम हो गया । "बड़े भैया । " एक दिन बोले, "इनको में याद करूंगा और गाऊँगा ।"
मैने विनय की, "गए-गुजरे खडहरो को आप क्यो प्राबाद करने जा रहे हैं ?" तुरन्त उत्तर दिया, "एक गवरमटी मुहकमा खडहरो की मरम्मत के लिए भी है। वह क्यो ? उस मुहकमे को तुज्या दो तो मानूगा, नही तो नही ।"
उस्ताद हिन्दी नही जानते। थोडी सी, बहुत थोडी, उर्दू जानते हैं । मैने अपनी दो कविताएँ उनको उर्दू में लिखवा दी । सन्ध्या को वह उन्हे याद करके श्रा गए। एक को वसन्तमुखारी राग में विठलाया और दूसरी को देश मे । इन दोनो कविताओ को वह प्रत्येक वडी बैठक मे अवश्य गाते है । उनको वे बहुत प्रिय है, क्योकि वे उनके 'बड़े भैया' की है ।
एक दिन स्वर्गीय श्री गणेशशंकर विद्यार्थी ( प्रताप, कानपुर) झाँसी मे राजनैतिक प्रसग पर बातचीत कर रहे थे। विद्यार्थी जी जव-कभी झाँसी आते थे, राजनैतिक मतभेद होते हुए भी ठहरते मेरे घर पर ही थे। उसी समय उस्ताद आदिलखाँ आ गए । विद्यार्थी जी उनको नही जानते थे, पर श्रादिलखाँ उनसे परिचित थे । उस्ताद इतने बेतकल्लुफ है कि परिचय इत्यादि सरीखी परिपाटियो मे न तो विश्वास रखते है और न उन पर अपना समय ही खर्च करते है । बैठते ही बोले, "यह शायद विद्यार्थी जी हैं । कानपुर वाले ।" विद्यार्थी जी ने भी बेतकल्लुफी के साथ पूछा, "आप कौन है
?"
मैने दोनो प्रश्न का उत्तर एक साथ ही दिया, "यह मेरे मित्र प्रसिद्ध नेता श्री गणेशशकर विद्यार्थी और यह प्रसिद्ध गायनाचार्य उस्ताद आदिलखां । "