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भारतीय गृहो का अलकरण
६५१ जीवन-यापन करने से इकार करती है। जिम आधुनिक यथार्थवाद का हमें वदा घमड है, उसने परिस्थिति को और भी विकृत कर दिया है । आजकल पति और पत्नी का जीवन अधिकार और मांग का जीवन है, न कि 'कर्तव्य और त्याग' का। ऐमी दशा मे गाईम्य जीवन में ममन्वय की प्रागा करना कहाँ तक मगत है ।
आज हमारे घरोकी सजावट की क्या हालत है ? वह या तो क्षोभपैदा कग्ने वाली होती है, या उसमें सजावट का केवल दभ होता है। न तो मौदर्य का कोई उपयुक्त स्वरूप हमारे सामने है और न हममें मुन्दर वातावरण उत्पन्न करने की कोई उत्कठा ही है। हम मांदर्य की भावना को अपेक्षा सम्मान के भाव का अधिक आदर करते है। उम्दापन या आवश्यकता से अधिक न होने का विचार हमारे लिये उतना ग्राह्य नही, जितना कि मागहीन दिखावा। वास्तविकता की अपेक्षा हम तडक भडक को पमद करते है। मुहावना शान्तिभाव हम उतना प्रिय नहीं लगता, जितना कि भडकीले रगो का माज ।
आधुनिक घरों की मजावट में, केवल वैमव-प्रदर्शन दृष्टिगोचर होता है। मोफे, रेडियो, दरियां, कार्डबोर्ड, दरवाजो तया दीवालो में लटकने वाले झाड-फानूग आदि शृगार के उपकरण होते है । इम अव्यवस्थित अलकरण में न तो मयम की भावना रहती है,ज मौदर्य का ही समन्वय मिलता है । ययासभव कीमती वस्तुओं का प्रदर्शन ही सुन्दर समझा जाता है।
हमे यह मानना पड़ेगा कि अाधुनिक सभ्यता की दृष्टि से अपने को प्रतिष्ठिन जताने के लिए हम विना सोचेविचारे यूरोपीय ढग को रहन-सहन का अनुकरण कर रहे है। वास्तव मे रह्न-महन का रूप अधिकाग मे देश की भौगोलिक स्थितियो पर अवलवित है। जो वात ठडी जलवायु के लिए आवश्यक है, वह गर्म के लिये नही। जिस प्रकार के रहन-सहन की आवश्यकता पहाडी प्रदेश के लिए उपयुक्त है, वैमी खुले तथा लवे-चौडे मैदान के लिए नहीं। फिर जो बातें किमी एक व्यक्ति के मनोनुकूल हो मकती है, वे दूसरे के नहीं। यूरोप की जलवायु के लिये दरी विछे हुए बद कमरे, गद्दीदार कुर्सियां तथा गर्म कपडे आवश्यक होते हैं, परतु ये मव वात हमारे देश मे, जो यूरोप की अपेक्षा कहीं गर्म है, क्यो अपनाई जायें ? एक यूरोप के निवामी को ऊँचे पर बैठ कर अपने पैर नीचे लटकाने मे सहूलियत होती है, परतु कोई जरूरत नहीं कि हिंदुस्तानी भी इसकी नकल कर और फर्श पर पालथी मार कर बैठने की अपनी आदत छोट दे। यूरोप के व्यक्ति को आग के समीप बैठना भला मालूम पड़ता है। क्या हम भी इसको देखकर अपने कमरो मे अंगीठी जलाने का एक स्थान यूरोप के ढग की तरह बनावे ? कपडो का जो रंग गोरे लोगो के लिए वर्फीली जगह और कुहरे वाले मौसम मे उपयुक्न होता है वह भूरे या काले रंग वाले मनुष्यो के लिये, जो हरे-भरे तथा धूप वाले स्थानी में रहते है, आवश्यक नहीं हो सकता। दूमरो की नकल कर लेने में ही शोभा नही आ जाती। इससे तो नकल करनेवाले के शौक का छिछलापन प्रकट होता है।
भारतीय जलवाय के लिये खुला हुआ फर्श का होना जरूरी है । गट्टीदार कुसियो का रखना बुरा शौक है । स्प्रिंगदार कुर्मियों का प्रयोग म्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डालने वाला है । उनके स्थान पर काठ या वेत की कुर्मियो का, जिनके ऊपर अलग मे गद्दियां रक्खी गई हो, व्यवहार करना ठीक है । यूरोप के ढग की सोफा वाली कुर्मी की बनावट अप्राकृतिक होती है। उसे कुछ चौडा बनना चाहिए, जिममे बैठने वाला अपने पैर कूलो की मीच में फैला कर बैठ सके । दुपहली मोफा-कुर्सी अनावश्यक जंचती है। कुसियो की अपेक्षा फर्ग पर पालथी मार कर बैठना अधिक अच्छा है और इमे मम्मानप्रद मानना चाहिए।
रगो का चुनाव प्राकृतिक आवश्यकताओ नथा लोगो के शारीरिक रूपरग के अनुकूल होना चाहिए । भारनीयो के लिए लाल या पीले रग, जिनमे एकाच काली चित्तियां वनी हो अधिक उपयुक्त है । हलके पीले तथा सफेद रग भी, जिनके किनारे कुछ काले या गहरे हो, व्यवहार में लाये जा सकते है। यदि नीला रग पमद है तो वह इतना हीनीला हो, जितना आसमान का रग है । काले रंग के साथ गहरे नीले रंग का प्रयोग भयावना लगता है। हर रग निलाई की अपेक्षा पिलाई लिये हुए होने चाहिए। हमारे चारो ओर पत्तियो की हरियाली बहुत देखने को मिलती