Book Title: Premi Abhinandan Granth
Author(s): Premi Abhinandan Granth Samiti
Publisher: Premi Abhinandan Granth Samiti

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Page 761
________________ ७०६ प्रेमी-प्रभिनदन-प्रथ लोहाध्यक्षस्ताम्रसीस त्रपु बैंकृन्तकारकूटवृत्तकसताललोहकर्मान्तान्कारयेत् ।।२।१२।२५॥ लक्षणाध्यक्षश्चतुर्भाग ताम्र रूप्यरूप तीक्ष्णत्रपुसीसाजनानामन्यतम माषवीजयुक्त कारयेत् पणमधपण पादमष्टभागमिति ॥ २१२॥२७॥ लोहाध्यक्ष तो समस्त धातु विभाग का अध्यक्ष होता था और लक्षणाध्यक्ष (mint master) सिक्के बनाने के विभाग पर गासन करता था। एक पण मे ११ माष चांदी, ४ माप तांबा और १ माप लोहा, सीसा, रांगा, अजनादि होता था। यह महत्त्व की बात है कि कोटिल्य के समय में क्षार व्यवसाय भी राज्य के नियन्त्रण में रहता था। खन्यध्यक्ष इम विभाग का अधिकारी था। खन्यध्यक्ष शङ्खवज्ञमणिमुफ्ता प्रवालक्षारकर्मान्तान्कारयेत् ॥ २॥१२॥३४॥ रत्नो की परीक्षा शुक्रनीतिसार के अनुसार वज (हीरा), मोती, मूगा, इन्द्रनील, वैडूयं, पुखराज, पाची (पन्ना) और माणिक्य ये नौ महारत्न है। रत्नो में वज्र श्रेष्ठतम, माणिक्य, पाची और मोती श्रेष्ठ पौर इन्द्रनीरा, पुषराज, वैडूर्य मध्यम, एव गोमेद और मूगा अधम बताये गये है। कौटिल्य ने इन रत्नों की विस्तृत विवेचना की है (२।११।२९-३३) जिसका उल्लेख करना यहाँ सम्भव नही है । मणि-कौट, मौलेयक, पार-समुद्रक (३ भेद)। माणिक्य-सौगन्धिक, पद्मराग, अनवद्यराग, पारिजात पुष्पक, वालसूर्यक (५ भेद)। वैडूर्य-उत्पलवर्ण, शिरीषपुष्पक, उदकवर्ण, वशराग, शुकपावर्ण, पुष्यराग, गोमूनफ, गोमेदक ( भेद)। इन्द्रनील-नोलावलीय, इन्द्रनील, कलायपुष्पक, महानील, जाम्बवाभ, जीमूतप्रभ, नन्दपा, वन्मध्य ( भेद)। स्फटिक-शुद्ध, मूलाटवर्ण, शीतवृष्टि (चन्द्रकान्त), सूर्यकान्त (४ भेद) इसी प्रकार मणियो के १८ अवान्तर भेद है और ६ भेद हीरे के है। वर्तमान मणि-विज्ञान (Crystallo graphy) मे मणियों के प्राकृति-निरीक्षण पर विशेष बल दिया गया है । यह सन्तोष की वात है कि कौटिल्य ने भी इस ओर सकेत किया हैषडतुश्चतुरश्रो वृत्तो वा तीन राग सस्थानवानच्छ स्निग्यो गुरुचिष्मानन्तर्गतप्रभ प्रभानुलेपी चेति मणिगुणा ॥ २११॥३४ ।। मणियो के गुणो का परीक्षण करते समय चतुरश्र प्रादिक परीक्षण (geometrical),गुरुत्ल (density), एव अर्चिष्मान अन्तर्गत प्रभ, और प्रभानुलेपो आदि प्रकाश सम्बन्धी (optical) गुणो का ध्यान रलगा चाहिए। आजकल भी मणिपरीक्षण की बहुधा यही विधियाँ है। हीरे के सम्बन्ध में भी कहा है कि अच्छा हीरा समकोटिक (regular) होना चाहिए, अप्रगस्त हीरा नष्टकोण होता हैनष्टकोण निरश्रिपाश्वपिवृत्त चाप्रशस्तम् ॥ २॥११॥४२॥ सुवर्ण और उसका शोधन कौटिल्य ने सुवर्ण के आठ भेद बताये हैजाम्बूनद, शातकुम्भ, हाटक, वैणव, भृगशुक्तिज, जातरूप, रसविद्धमाकरोद्गत, च सुवर्णम् ॥ २॥१३॥३॥ ये भेद उत्पत्ति स्थान की दृष्टि से है। सुवर्ण शोधन की विधियो मे निम्न मुग्य है--

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