Book Title: Premi Abhinandan Granth
Author(s): Premi Abhinandan Granth Samiti
Publisher: Premi Abhinandan Granth Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 770
________________ जैन-गणित की महत्ता ७१५ जाति, त्रैराधिक, पचराशिक, सप्नराणिक, नवराशिक, भाण्ड प्रतिभाण्ड, मिश्रव्यवहार, भाव्यकव्यवहार, एकपत्रीकरण, सुवर्णगणित, प्रक्षेपकगणित, समक्रयविक्रयगणित, श्रेणीव्यवहार, क्षेत्रव्यवहार एवं छायाव्यवहार के गणित उदाहरण सहित बतलाये गये हैं । सुवाकर द्विवेदी जैसे प्रकाण्ड गणितज्ञ ने इनकी प्रशंसा करते हुए लिखा है"भास्करेणाय्याने प्रकारास्तम्करवदपहृता । अहो अस्य सुप्रसिद्धस्य भास्करादितोऽपि प्राचीनस्य विदुषो ऽन्यकृतिदर्शनमन्तरा समये महान् समय । प्राचीना एकशास्त्रमात्रैकवेदिनो नाऽमन् ते च बहुश्रुता बहुविषयवेत्तार आसन्नन न साय ।" इमसे स्पष्ट है कि यह गणितज्ञ भास्कराचार्य के पूर्ववर्ती प्रकाण्ड विद्वान् थे । स्वतन्त्र रचनाओ के प्रतिरिक्त जैनाचार्यों ने अनेक श्रर्जन गणित ग्रन्थों पर वृत्तियाँ भी लिखी है। मिहतिलक सूरि ने लीलावती के ऊपर भी एक ast वृत्ति लिखी है । इनकी एकाव स्वतन्त्र रचना भी गणित सम्बन्वी होनी चाहिए । लौकिक जैन गणित को अकगणित, रेखागणित श्रीर वीजगणित इन तीन भागों में विभक्त कर विचार करने की चेष्टा की जायगी । जैन अकगणित - इसमें प्रधानतया श्रक सम्बन्धी जोड, बाकी, गुणा, भाग, वर्ग, वर्गमूल, घन और घनमूल इन आठ परिकर्मों का समावेश होता है । भारतीय गणित में उक्त श्राठ परिकर्मों का प्रणयन जैनाचार्यों का अति प्राचीन है । आर्यभट, ब्रह्मगुप्त और भास्कर आदि जैनेतर गणितज्ञो ने भी उपर्युक्त परिकर्माष्टको के मन्च में विचार-विनिमय किया है, किन्तु जैनाचार्यों के परिकर्मों में अनेक विशेषताएं है । गणित सारसग्रह की अग्रेजी भूमिका में डेविड यूजीन स्मिय ( David Eugene Smith ) लिखते हैं- “The shadow problems, primitive cases of trigonometry and gnomonics, suggest a similarity among these three great writers, and yet those of Mahavīrācārya are much better than the one to be found in either Brahmagupta of Bhāskara ” इन पक्तियो मे विद्वान् लेखक ने महावीराचार्य की विशेषता को स्वीकार किया है। महावीराचार्य ने वर्ग करने की अनेक रीतियां बतलाई है । इनमे निम्न मौलिक श्रीर उल्लेखनीय है - " अन्त्य' श्रक का वर्ग करके रखना, फिर जिसका वर्ग किया है उसी क को दूना करके शेष को से गुणा करके रखना, फिर जिसका वर्ग किया है उसी अक को दूना कर शेष को मे गुणा कर एक अक आगे हटा कर रखना इस प्रकार अन्त तक वर्ग करके जोड़ देने से राशि का वर्ग हो जाता है ।" उदाहरण के लिए १३२ का वर्ग करना है (2)= १ १x२=२,२४३= १x२=२,२x२= (३)= ३x२=६, ६x२= (२')= ६ १ ७ ४ ६ १ २ ४ २ ४ ४ ' कृत्वान्त्यकृति हन्याच्छेषपद द्विगुणमन्त्यमुत्सार्य । शेषात्मायैव करणीयो विधिरय वर्गे ॥ यहाँ अन्त्य अक्षर से तात्पर्य इकाई दहाई से है, प्रथम, द्वितीय प्रक से नहीं—परिकर्म व्यवहार श्लो० ३१

Loading...

Page Navigation
1 ... 768 769 770 771 772 773 774 775 776 777 778 779 780 781 782 783 784 785 786 787 788 789 790 791 792 793 794 795 796 797 798 799 800 801 802 803 804 805 806 807 808