Book Title: Premi Abhinandan Granth
Author(s): Premi Abhinandan Granth Samiti
Publisher: Premi Abhinandan Granth Samiti

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Page 775
________________ ७२० प्रेमी-अभिनदन-ग्रंथ जैन वीजगणित-जैन अकगणित के करणसूत्री के साथ वीजगणित सम्बन्धी सिद्धान्त (formulas) व्याप्त रूप से मिलते है । जैनाचार्यों ने अपनी प्रखर प्रतिभा से अकगणित के करणसूत्रो के साथ बीज गणित के नियमो को इस प्रकार मिला दिया है कि गणित के साधारण प्रेमी भी वीजक्रिया से साधारणतया परिचित हो सकते है। जैन वीज गणित में एक वर्ण समीकरण, अनेक वर्ण सभीकरण, करणी, कल्पित राशियां, समानान्तर, गुणोनर, व्युत्क्रम, समानान्तर श्रेणियो, क्रम सचय, धानाङ्क और लघुगुणको के सिद्धान्त तथा द्विपद सिद्धान्त आदि वीजक्रियाएँ है । उपर्युक्त वीजगणित के सिद्धान्त धवलाटीका, त्रैलोक्यप्रज्ञप्ति, लोकविभाग, अनुयोगद्वारसूत्र, उत्तराध्ययनसूत्र, गणितसारसग्रह और त्रिलोकसार आदि ग्रन्यो में फुटकर रूप से मिलते हैं। धवला में बड़ी संख्याओं को सूक्ष्मता से व्यक्त करने के लिए घाताङ्क नियम (वर्ग-सवर्ग) का कथन किया गया है। बीजक्रिया जन्य घाताङ्क का सिद्धान्त अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और मौलिक है। डाक्टर अवधेशनारायण धवला को चतुर्थ जिल्द को अग्रेजो भूमिका मे लिखते है कि "The theory of the indices as described in the Dhavala is somewhat different from what is found in the mathematical works This theory is certainly primitive and is earlier than soo A D The fundamental ideas seem to be those of (1) the square, (11) the cube, (ul) the successive square, (1v) the successive cube, (v) the raising of a number to its owa power, (vi) the square root, (vi) the cube root, (viu) the successive square foot, (ix) the successive cubc root etc" घाता, सिद्धान्त के अनुसार अ को अके धन का प्रथम वर्गमूल माना जायगा। धवला के सिद्धातो के अनुसार उत्तरोत्तर वर्ग और घनमूल निम्न प्रकार सिद्ध होते हैअ का प्रथम वर्ग अर्थात् (अ)= प्र' " द्वितीय वर्ग ,, (अ) = = , तृतीय वर्ग , (अ')'= = , चतुर्थ वर्ग , (अ) = = , पचम वर्ग , (अ) =अ"= , छठवां वर्ग , (अ) = = इसी प्रकार प्र' का दृष्टाडू वर्ग= (अ)इ अइ घाताङ्क' के अनुसार (१) क. ब-+ब(२)/न-मन (३) () = अग्न वीजगणित के एक वर्ण समीकरण सिद्धान्त के आविष्कर्ता अनेक विद्वानो ने जैनाचार्य श्रीधर को माना है। यद्यपि इनका नियम परिष्कृत एव सर्वव्यापी नही है, फिर भी प्राचीनता के खयाल से महत्त्वपूर्ण है। श्रीधराचार्य के नियमानुसार एक अज्ञात राशि का मान निम्न प्रकार निकाला जाता है - 'छट्टवग्गस्स उवरि सत्तमवग्गस्स हेटदोत्ति वुत्ते अत्यवत्तीण जोदत्ति धवलाटीका, जिल्द ३, पृ० २५३

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