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धर्मसेविका प्राचीन जैन देवियां
६८७ और भद्रवाह के चरणो की वन्दना की। उमी रात को पद्मावती देवी ने कालल देवी को स्वप्न दिया की कुक्कुट सो के कारण पोदेनपुर की बन्दना तुम्हारे लिये असम्भव है, पर तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न होकर गोम्मटदेव तुम्हे यही बटी गहाटी पर दर्शन देगे। दर्शन देने का प्रकार यह है कि तुम्हारा पुत्र शुद्ध होकर इस छोटी पहाडी पर से एक स्वर्णवाण छोटे तो भगवान के दर्शन होगे। प्रात काल होने पर चामुण्ड ने माता के प्राज्ञानुमार नित्यकर्म मे निपट कर शुद्र हो स्नान-पूजन कर छोटी पहाडी की एक शिला पर अवस्थित हो दक्षिण दिशा की ओर मुह कर एक वाण छोडा जो विन्ध्यगिरि के मस्तक पर की शिला में लगा । बाण के लगते ही गोम्मटस्वामी का मस्तक दृष्टिगोचर हुअा। फिर जैनगुरु ने हीरे की खेती और मोती के हथोडे मे ज्यो ही शिला पर प्रहार किया, गिला के पापाणखण्ड अलग हो गये और गोम्मटदेव की प्रतिमा निकल आई। इसके बाद माता की आज्ञा मे वीरवर चामुण्डराय ने दुग्धाभिषेक किया।
इस पौगणिक घटना में कुछ तथ्य हो या नहीं, पर इतना निर्विवाद सिद्ध है कि चामुण्डराय ने अपनी माता कालल देवी की आज्ञा और प्रेरणा मे ही श्रवण वेलगोल में ही गोम्मटेश्वर की मूर्ति स्थापित की थी। इस देवी ने जैनधर्म के प्रचार के लिये कई उत्राव भी किये थे । चामुण्डराय के जैनधर्म का पक्का थद्वानी होने का प्रधान कारण इम देवी की स्नेहमयी गोद एव वाल्यकालीन उपदेश ही या।।
___ दमवी, ग्यारहवी और बारहवी शताब्दी में अनेक जैन महिलाओ ने जैनधर्म की मेवा की है। इस काल में दक्षिण में राजघरानो की देवियो के अतिरिक्त साधारण महिलाओं ने भी अपने त्याग एव मेवा का अच्छा परिचय दिया है। दमवी शताब्दी के अन्तिम चरण में पाम्बव्वे नाम की एक अत्यन्त धर्मशीला महिला हो गई है। इसके पति का नाम पडियर दोरपय्य था। यह उनकी पत्नी बनाई गई है। यह नाणव्वे कन्ति नामक धर्माचार्य की शिष्या थी। इसके मबध में लिया हुआ मिलता है-"Pambabbe having made her head bold (by plucking cut the hair), performed penance for thirty years, and observing the five vows expired in A D.971."
__ अर्थात्-पाम्बव्वे केगलुञ्च कर तीस वर्ष तक महान् तपश्चरण करती रही और अत मे पचनतो का पालन करते हुए ६७१ ई० मे शरीर-त्याग किया।
ग्यारहवी शताब्दी में गम्भूदेव और अकन्ने के पुत्र चन्द्रमौलि की भार्या अचलदेवी अत्यन्त धार्मिक महिला हुई है। यह चन्द्रमौलि वीरवल्लालदेव का मन्त्री था। अचलदेवी के पिता का नाम मोवण नायक और माता का नाम वाचब्बे था। यह नयकीत्ति के शिष्य वालचन्द्र की शिष्या थी। नयकीर्ति सिद्धान्तदेव मूलसघ, देशीयगण पुस्तकगच्छ कुन्दकुन्दान्वयके गुणचन्द्र सिद्धान्तदेव के शिष्य थे। नयकोति के शिष्यो मे भानुकीति, प्रभाचन्द्र, माघनन्दी, पद्मनन्दी, वालचन्द्र और नेमिचन्द्र मुख्य थे। अचलदेवी का दूसरा नाम प्राचियक्क बताया गया है । इसने अक्कनवस्ति (जिनमन्दिर) का निर्माण कराया था। चन्द्रमौलि ने अपनी भार्या अचलदेवी की प्रेरणा से होयसल नरेश वीरवत्लाल से बम्मेयनहल्लि नामक ग्राम उपर्युक्त जिनमन्दिर की व्यवस्था के लिए मांगा था। राजा ने धर्म-मार्ग का उद्योत ममझ कर उक्त ग्राम दान मे दिया था। इसी अचलदेवी की प्रार्थना से वीरवल्लाल नृप ने बेक्क नामक ग्राम गोम्मटनाथ के पूजन के हेतु दान मे दे दिया। इस धर्मात्मा देवी के सम्बन्ध मे एक स्थान पर कहा गया है कि यह माक्षात् धर्ममूर्ति थी। इसने धर्म-मार्ग की प्रभावना के लिए कई उत्सव किये थे। इन उत्सवो में यह रात्रि-जागरण करती रही थी।
इसके अनन्तर इमी शताब्दी में पद्मावती वक्क का नाम धर्मसेविकानो मे पाता है। यह देवी अभयचन्द्र की गृहस्थ गिप्या थी। सन् १७०८ मे अभयचन्द्र का देहावसान होने पर इमने उस वसादि का निर्माण कार्य पूर्ण किया था, जिमका प्रारम्भ अभयचन्द्र ने किया था। इस देवी ने देवमन्दिर की चहारदीवारी भी वनवा दी थी। अपने ममय की लव्ध-प्रतिष्ठ सेविका यह देवी थी। इमी देवी की ममकालीन कोगाल्व की माता पोचव्वरसि ने एक वमादि का निर्माण कराया था। इस वसादि में इसने अपने गुरु गुणसेन पडित को मूत्ति स्थापित की थी। सन्