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प्रेमी-अभिनंदन-ग्रंथ पेरुमाल गुरु की शिष्या घण्णेकुत्तारे, विगुरवि, नमिलूरसघ की प्रभावती, मयूरसघ की अध्यापिका दभितावती, इसी सघ की सौंदर्या आर्या नाम की प्रायिका एव व्रत शिलादि सम्पन्न गशिमति-गन्ति के समाधिमरण धारण करने का उल्लेख मिलता है। इन देवियो ने श्राविका के व्रतो का अच्छी तरह पालन किया था। अन्तिम जीवन में मसार से विरक्त होकर कटवप्र पर्वत पर समाधि ग्रहण कर ली थी। सौन्दर्या आर्या के सवध मे शिलालेख न० २६ (१०८) मे लिखा है कि उसने उत्साह के माथ आत्म-मयम-तहित समाधि अत्त का पालन किया और सहज ही अनुपम सुरलोक का मार्ग ग्रहण किया।
___ इसके अनन्तर जैनवर्म के धार्मिक विकास के इतिहास में पल्लवाधिराज मरुवर्मा की पुत्री और निर्गुन्द देश के राजा परमगूल की रानी कदाच्छि का नाम आता है । इसने श्रीपुर मे 'लोकतिलक' जिनालय बनवाया था। इस जिनालय की सुव्यवस्था के लिये श्रीपुरुष राजा ने अपनी भायां की प्रेरणा एव परमगूल की प्रार्थना से निर्गुन्द देश में स्थित पूनल्लि नामक ग्राम दान मे दिया था। ऐतिहासिक जैनधर्म-सेविका जैनमहिलाओं में इस देवी का प्रमुख स्थान है। इसके मवध मे कहा जाता है कि “यह सदापुण्य कार्यों मे आगे रहनी थी। इसने कई उत्सव और जागरण भी किये थे।" इसका पता ७७६ ईस्वी की एक राजाज्ञा मे चलता है कि इस काल मे कदाच्छि पूर्ण वयस्क थी। माथ ही यह भी मालूम होता है कि इस देवी का केवल अपने ही परिवार पर प्रभाव नहीं था, बल्कि गगराज परिवार पर भी था।
इसके बाद प्रमुख जैन महिलामो में जाक्कियव्वे का नाम आता है। श्रवण वेलगोल के शिलालेख न० ४८६ (४००) से पता चलता है कि यह देवी शुभचन्द्र सिद्धान्तदेव की शिष्या थी और इसने एक मूर्ति की स्थापना कराई था। इसकी व्यवस्था के लिए गोविन्द वार्ड की भूमि दान की थी। इस देवी के पति का नाम सत्तरन नागार्जुन या। यह राष्ट्रकूट राजा कृष्ण तृतीय के समय में हुई थी। सन् १११ मे सत्तरस नागार्जुन जो नागखण्ड ७० का गासक था, मर गया था। राजा ने उसके स्थान पर उसकी पत्नी को नियुक्त किया था। इस कथन से सिद्ध होता है कि जाक्किायवे राज्य-कार्य सचालन में भी निपुण था। इसके सवध में कहा गया है कि “This lady who was skilled in ability for good government faithful to the Jinendra Sasan and rejoicing in her beauty"
अर्थात्-"यह राज्यकार्य में निपुण, जिनेन्द्र के शासन के प्रति प्राज्ञाकारिणी और लावण्यवती थी।" स्त्री होने पर भी उसने अपने अपूर्व साहस और गाम्भीर्य के साथ जैन शासन और राज्य शासन की रक्षा की थी। अन्तिम समय में यह व्याधिग्रस्त हो गई । इसलिये इसने पुत्री को राज्य सौंप कर वन्दणिक नामक ग्राम को वमादि में सल्लेखना धारण की थी।
___ इस शताब्दी में एक और जैनमहिला के उल्लेखनीय कार्य आते है, जिसका नाम अतिमव्ये या। इस देवी के पिता का नाम सेनापति मल्लय्य, पति का नाम नागदेव और पुत्र का नाम पडेवल तेल था। अतिमव्वे का जैन नारियो में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। कहा जाता है कि इस देवी ने अपने व्यय से पोनकृत शान्तिपुराण की एक हजार प्रतियां और डेढ हजार सोने और जवाहिरात की मूर्तियां तैयार कराई थी। अनेक धर्म-सेविकागो की तुलना अतिमव्वे से की गई है।
दसवी शताब्दी के अन्तिम भाग मे वीरवर चामुण्डराय की माता कालल देवी एक वडी धर्म-प्रचारिका हुई है। 'भुजवल-चरित' से पता लगता है कि इस देवी ने जव जैनाचार्य जिनसेन के मुख से गोम्मट देव की मूर्ति की प्रशसा सुनी तो प्रतिज्ञा की कि जब तक गोम्मट देव के दर्शन न करूँगो, दूध नहीं पीऊंगो। जव चामुण्डराय को अपनी पत्नी अजितादेवी के मुख से अपनी माता का यह सवाद मालूम हुअा तो मातृभक्त पुत्र ने माता को गोम्मटदेव के दर्शन कराने के लिये पोदेनपुर को प्रस्थान किया। मार्ग में उन्होने श्रवण वेलगोल की चन्द्रगुप्त वस्ति मे पार्श्वनाथ के दर्शन किये
"विशेष जानकारी के लिए देखिए 'मेडीवल जैनिज्म' पृ० १५६ ।