Book Title: Premi Abhinandan Granth
Author(s): Premi Abhinandan Granth Samiti
Publisher: Premi Abhinandan Granth Samiti

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Page 740
________________ धर्मसेविका प्राचीन जैन देवियाँ ६८५ रही है कि उन्होने माता, बहिन और पत्नी के रूप मे जो जैन धर्म का वीज- वपन किया था, वह पल्लवित और पुष्पित होकर पुरुष वर्ग को अक्षुण्ण गीतल छाया श्रनन्तकाल तक प्रदान करता रहेगा । seat पूर्व छठी ताब्दी में जैनधर्म का अभ्युत्यान करने वाली इदवाकुवशीय महाराज चेटक की राज्ञ भद्रा, चद्रीय महाराज गतानीकको वर्मपत्ती मृगावतो, महाराज उदयन को सम्राज्ञी वासवदत्ता, सूर्यवंशीय महाराज दगर की पत्नी सुत्रभा, उदयन महाराज को पत्नी प्रभावती, महाराज प्रमेनजित की पत्नी मल्लिका एव महाराज दाफवाहन की पत्नी अभया हुई है । इन देवियो ने अपने त्याग एव शीर्य के द्वारा जैनधर्म की विजयपताका फहराई या । इहोने अपने द्रव्य से अनेक जिनालय का निर्माण कराया था तथा उनको समुचित व्यवस्था करने के लिये राज्य की ओर से भा महायता का प्रबंध किया गया या । महारानी मल्लिका एव श्रभया के सवव में कहा जाता है कि इन देवियों के प्रभाव ने ही प्रभावित होकर महाराज प्रमेनजित एव दार्फवाहन जैन धर्म के दृढ श्रद्वालु हुए थे । महाराज प्रसेनजित ने श्रावस्ती के जैनो को जो सम्मान प्रदान किया था, इसका भी प्रवान कारण महारानी की प्रेरणा ही थी । इनके सबंध मे एक स्थान पर लिवा है कि यह देवी परम जिन भक्ता और माधु-मेविका थी । नामायिक करने में इतनी लीन हो जाती थी कि उसे तन-बदन की सुधि भी नही रहता था । इसका मुख अत्यन्त तेजस्वी और कान्तिमान था । विधर्मी भी इनके दर्शन में जैनधर्म के प्रति श्रद्धालु हो जाते थे । ईस्वी पूर्व ५वी और ४यो शताब्दी म इक्ष्वाकुवगीय महाराज पद्म की पत्नी धनवती, मौर्यवगीय चन्द्रगुप्त की पत्नी मुपगा एव सिद्धमेन की धर्मपत्नी सुप्रभा के नाम विशेष उल्लेग्वयोग्य है । ये देवियाँ जैनधर्म को श्रद्धालु एव भक्ता थी । महाराज यम उड़देश के राजा थे । इन्होने सुधर्म स्वामी मे दीक्षा ली थी । इन्ही के साथ महारानी वनवती भी श्राविका के व्रत ग्रहण किये थे । धनवती ने जैनधर्म के प्रसार के लिये कई उत्मव भी किये थे । यह जैनधर्म की परम श्रद्धालु और प्रचारिका थी। इसके मवध में कहा जाता है कि इसके प्रभाव मे केवल इसका ही कुटुम्व जैनवर्मानुयायी नहीं हुया था, बल्कि उडूदेश को ममस्त प्रजा जैनधर्मानुयायिनी वन गई थी। इसी प्रकार महागनी सुभद्रा ने भी जैनवर्म की उन्नति मे पूर्ण महयोग प्रदान किया था। प्राचीन जैन इतिहास के पन्ने उलटने पर ईस्वी मन् मे २०० वर्ष पूर्व सम्राट् ऐल खारवेल की पत्नी भूमीसिंह यया वडी घर्मात्मा हुई है । इम दम्पत्ति युगल ने भुवनेश्वर के पान सण्डगिरि और उदयगिरि पर जैन मुनियों के रहने के लिये अनेक गुफाएँ बनवाई और दोनो ही मुनियो की मेवा सुश्रूषा करते रहे। सिंहयथा ने जनवमं की प्रभावना के लिये एक बडा भारी उत्सव भी किया था । ईस्वी पूर्व ४यी शताब्दी मे लेकर ईस्वी सन् की ध्वी शताब्दी तक के इतिहास मे सिर्फ गगवश की महिलाओ की सेवा का ही उल्लेख मिलता है । यह वग दक्षिण भारत के प्राचीन और प्रमुख राजवगो मे से था । आन्ध्रar के गक्तिहीन हो जाने पर गगवश के राजाओ ने दक्षिण भारत की राजनीति म उग्र रूप से भाग लिया था । इस वश के राजाओ की राजधानी मैसूम थी । इम वग के अधिकाश राजा जैन धर्मानुयायी थे । राजाओ के साथ गगवा की रानियों ने भी जैन धर्म की उन्नति के लिये अनेक उपाय किये। ये रानियाँ मन्दिरो की व्यवस्था करती, नये मन्दिर और तालाव वनवाती एव धर्म कार्यों के लिये दान की व्यवस्था करती थी । इम राज्य के मूल सस्थापक ददिग और उनकी भार्या कम्पिला के धार्मिक कार्यों के सवध मे कहा गया है कि इस दम्पति-युगल ने श्रनेक जैन मन्दिर बनवाये ये । इम काल मे मन्दिरो का वडा भारी महत्त्व था । मन्दिर केवल भक्तो की पूजा के स्थान ही नहीं थे, बल्कि जैन धर्म के प्रसार एव उन्नति के सच्चे प्रतीक होते थे । प्रत्येक मन्दिर के साथ एक प्राचार्य रहता था, जो निरन्तर धर्मप्रचार और उसके उत्कर्ष का ध्यान रखता था । वास्तव में उस काल में जैन मन्दिर ही जैन धर्म के साहित्य, संस्कृति, कला एव मालिक शक्ति के पुनीत श्राश्रम थे । इसलिए जैनदेवियों ने अनेक जिनालय निर्माण करा कर जैन धर्म की उन्नति में भाग लिया था । 1 श्रवणबेलगोल के शक म० ६२२ के शिलालेखो मे प्रादेय रेनाडु में चितूर के मौनीगुरु की शिष्या नागमति,

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