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धर्मसेविका प्राचीन जैन देवियां
६८९ धर्मात्मा, रूपवती और विदुषी थी। इसका विवाह होयसलवशी महाराज विष्णुवर्धन के साथ हुआ था। इसके सम्बन्ध में कहा गया है कि यह जैन धर्मावलम्बिनी, धर्मपरायणा और प्रभाचन्द्र मिद्धान्तदेव की शिष्या थी। श्रवण वेलगोल के शिलालेख न० ५६ (१३२) में बताया गया है कि "विष्णुवर्द्धन की पट्टरानी गान्तलदेवी-जो पातिव्रत, धर्मपरायणता और भक्ति मे रुक्मिणी, सत्यभामा, सीता-जैसी देवियो के ममान थी- सवतिगन्धवारणवस्ति निर्माण कराकर अभिषेक के लिए एक तालाब वनवाया और उसके साथ एक गांव का दान मन्दिर के लिए प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेव को कर दिया।" एक दूसरे शिलालेख मे यह भी कहा गया है कि इस देवी ने विष्णुवर्द्धन नरेश की अनुमति से और भी कई छोटे-छोटे ग्राम दान किये थे। इन ग्रामो का दान भी मूलसघ, देशीयगण, पुस्तकगच्छ के मेघचन्द्र विवदेव के शिष्य प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेव के लिए किये जाने का उल्लेख है। जैन महिलाओ के इतिहास में इस देवी का नाम चिरस्थायी है। इमने सन् ११२३ मे श्रवण वेलगोल में जिनेन्द्र भगवान् की एक प्रतिमा स्थापित की, जो शान्ति जिनेन्द्र के नाम से प्रसिद्ध है । इमने भक्ति, दया, दान, धर्मशीलता और सौजन्यता आदि गुणो से अपूर्व ख्याति प्राप्त की थी। अन्तिम जीवन मे शान्तलदेवी विषयभोगी से विरक्त होकर कई महीनो तक अनशन और ऊनोदर व्रतो को धारण करती रही थी। मन् ११३१ में शिवगगे नामक स्थान मे सल्लेखना धारण कर गरीर त्याग किया था।
गान्तलदेवी की पुत्री हरियबरसि ने अनेक धार्मिक कार्य किये थे। इसने सन् ११२६ में कोडागिनाद के हन्तिपूर नामक स्थान मे एक बडा भारी जिनमन्दिर बनवाया था तथा इसके गोपुर की चोटियो मे हीरा, रत्न एव जवाहिरात आदि अमूल्य मणि-माणिक्य लगवाये थे। इस चैत्यालय के निर्वाह के लिए बहुत सी भूमि दान की है। इनके सम्बन्ध मे एक स्थान पर कहा गया है कि "हरिपब्वरसि की ख्याति तत्कालीन वार्मिको में थी, मदसुन्दरी जैनधर्म की अत्यन्त अनुरागिणी थी, भगवान् जिनेन्द्र का पूजन प्रतिदिन करती थी, मावु और मुनियो को आहार दानादि भी देती थी।"
विष्णुचन्द्र नरेश के बडे भाई बलदेव की भार्या जवक्कणब्वे की जैनधर्म में अत्यन्त श्रद्धा थी। श्रवण वेलगोल के गिलालेख न० ४३ (११७) मे बताया गया है कि देवी नित्य प्रति जिनेन्द्रदेव का पूजन करती थी।
यह चारित्र्यशील, दान, सत्य आदि गुणो के कारण विख्यात थी। यह गुरु के चरणो मे रात-दिन अहंत गुणगान, पूजन, भजन, स्वाध्याय आदि में निरत रहती थी। इसने 'मोक्षतिलक' व्रत करके एक प्रस्तरखड में एक जिनदेवता की प्रतिमा खुदवाई थी और वेलगोल में उसकी प्रतिष्ठा भी कराई थी। इस प्रतिष्ठा का समय अनुमानत ११२० ई० है।
जैन महिलाओ के इतिहास मे नागले भी उल्लेखयोग्य विदुषी, धर्मसेविका महिला है । इसके पुत्र का नाम वृचिराज या वूचड मिलता है । यह अपनी माता के स्नेहमय उपदेश के कारण शक स० १०३७ में वैशाख सुदी १० रविवार को सर्वपरिग्रह का त्याग कर स्वर्गगामी हुआ था। इसकी धर्मात्मा पुत्री देमति या देवमति, थी। यह राजसम्मानित चामुण्ड नामक वणिक् की भार्या थी। इसके सम्वन्ध में उल्लेख है
पाहार त्रिग्गज्जनाय विभय भीताय दिव्योषधम् । व्याधिव्यापदुमेतदीनमुखिने श्रोत्रे च शास्त्रागमम् । एवं देवमतिस्सदेव ददती प्रप्रक्षये स्वायुषामहद्देवमति विधाय विधिना दिव्या वधू प्रोदभू आसीत्परक्षोभकर प्रतापा शेषावनी पाल कृता दरस्य ।
चामुण्डनाम्नो वणिज प्रियास्त्री मुख्यासती या भुविदेवमतीति ॥ इन श्लोको से स्पष्ट है कि देवमति आहार, औषधि, ज्ञान और अभय इन चारो दानो को वितीर्ण करती
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