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काश्मीरी कवियित्रियां
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मूर्ति-पूजा का कबीर ने खडन किया है । ललितेश्वरी के लिए भी मूर्ति एक पत्यर के टुकडे से अविक अस्तित्त्व नही रखती। वे ज्ञान पर ही अधिक जोर देती है । वुद्धि को प्रकाशमान करना उन्हें अभीष्ट है और ज्ञान द्वारा आत्म साक्षात्कार करना उन्हें अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है। जगत को नश्वर मान, सासारिक वातो को मिथ्या समझ कर कहती है
कुस वव तय क्वस माजि कमी लाजि बाजी बठ फाल्य गछक कुह न वव फुह नो माजि
जानिय कव लानिय वोजी वठ ॥१०॥ कौन है वाप? और कौन है माँ ? किम ने तेरे माय प्रेम किया? ममय आने पर तू तो चला जायेगा। न तेरा कोई पिता होगा, न कोई माता होगी। यह मब कुछ जानते हुए भी तू क्यो प्रेम वढाता है?
ललितेश्वरी के और भी बहुत से पद्य यहां दिये जा सकते है, किन्तु पाठक इतने ही से उनके विचारो की सूक्ष्मता का अनुमान कर सकते है। अन्त में उनकी चार पक्तियां और देना उचित समझनी हूँ, जिनमे विदित होता है कि वे योग की क्रियाओं से भी पूर्णतया परिचित थी। वे कहती है
दाद शान्त मण्डल यस देवस यजय नासिक पवन अनाहत रव स यस कल्पन अन्तिह चलिय
स्वयम् देव त अर्चन फस ।।११।। ब्रह्मरन्ध्र को जिसने शिव का स्यान जाना, प्राणवायु के (प्रवाह) साथ-साथ जिमने अनाहत को मुना और जिम की वामनाएं अन्दर-ही-अन्दर मिट गई, वह तोम्वय ही देव है, शिव रूप है, फिर पूजा काहे की?
इनके पश्चात् विशेष उल्लेखनीय कवियित्री है 'हव्व खातून' । कहा जाताहै कि वे अकवर के समय में काश्मीर के गवर्नर की पत्नी थी। वे अत्यन्त रूपवती थी। जब अकबर ने उनको देखा तो उनके पति से कहा कि यह स्त्री मुझे दे दो। उसने देने से इन्कार किया और खातून स्वय भी वादगाह के हरम में जाने को राजी न हुई । इस पर वादगाह ने क्रोधित हो कर उनके पति को कत्ल करवा दिया । इस पर हव्व खातून अपने पति की याद में घर छोड कर वैरागी हो गई और इसी प्रकार मारी श्रायु विता दी। इनकी रचनाएं बहुत कम उपलव्व है, किन्तु जो कुछ भी है, प्रेम से भरी हुई है, चाहे उसे आध्यात्मिक प्रेम कहें, या भौतिक । हब्ब खातून तया इनकी समकालीन अथवा वाद की कवियित्रियो पर फारसी माहित्य तया कल्पना का अधिक प्रभाव है। फारमी एव उर्दू के कवियो मे विरह की व्याकुलता और चिर मिलन की साप हर समय बनी रहती है। यही वात हव्व खातून की रचनाओ में पाई भी जाती है। वे कहती है
लति थवनम दद फिराक कति लुगसय रसय मस छी रऽव यार करनस
मच व फलवान ॥१॥ लति (अपने आपको सम्बोधित करती है), मेरे उस (प्रेमी) निष्ठुर ने मुझे विरह की वेदना ही दी है। न जाने उमका मन कहाँ रमा है ? उम प्रीतम ने मेरी मस्ती को छित्र-भिन्न कर दिया और मैं बावली हो कर मारीमारी फिर रही हूँ।