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धर्मसेविका प्राचीन जैन देवियाँ
ब० चदावाई जैन कुटुम्ब ही समाज और देश की नीव है । नैतिक, आर्थिक और धार्मिक दृष्टि से कुटुम्ब का समाज में विदोप महत्व है। कटुम्ब के सदस्य पुरुष एव स्त्रियां इन दोनो वर्गों का आपस मे इतना घनिष्ट सबध है कि एक दूसरे को अन्योन्याश्रित समझा जाता है। अथवा यो कहना चाहिये कि ये दोनो वर्ग एक दूसरे के पूरक है। एक के विना दूसरे का काम चलना कठिन ही नहीं, बल्कि असभव है। यही कारण है कि दोनो का मदा मे सर्वत्र समान भाग रहा है।
समाज एव राष्ट्र में पुरुष वर्ग का काम अपने जीवन मे संघर्ष के द्वारा अर्जन करना है, महिलाओं का काम उमे सुरक्षित रखना है। इस प्रकार पुरुष का कर्मक्षेत्र बाहर का एव महिलामो का भीतर का है। पुरुप वहिर्जगत के स्वामी है तो महिला अन्तर्जगत की स्वामिनी, लेकिन ये दोनो जगत परस्पर दो नहीं, एक और अभिन्न है । इसलिए एक का उत्कर्ष एव अपकर्ष दूमरे का उत्कर्प एव अपकर्प है। पुरुष वर्ग में यदि कोई कमजोरी अथवा त्रुटि आई तो उसका प्रभाव महिला वर्ग पर पडे विना नही रह सकता। इसी प्रकार महिला वर्ग के गुण-दोष पुरुष वर्ग को प्रभावित किये बिना नही रह सकते। लाला लाजपतराय ने लिखा है, 'स्त्रियो का प्रश्न पुरुषो का प्रश्न है, क्योकि दोनो का एक दूसरे पर असर पड़ता है। चाहे भूतकाल हो या भविष्य,- पुरुषो की उन्नति बहुत कुछ स्त्रियो की उन्नति पर निर्भर है।"
स्त्री-पुरुषो के कार्य का विभाजन उनके स्वभाव-गुण के अनुसार किया गया है । सवल पुरुषो के हाथ मारी कार्यों को सौंपा गया और चूकि महिलाओ का स्वभाव सहज एव मृदु होता है, अत उसीके अनुरुप कार्य उन्हे दिये जाते हैं। शारीरिक बनावट के विश्लेषण से ज्ञात होता है कि स्त्री में हृदय की प्रधानता है और पुरुष मे मस्तिष्क की । वैज्ञानिको का मत है कि स्त्री के हृदय मे गुण अधिक होते है। उसमे पुरुष की अपेक्षा प्रेम, दया, श्रद्धा, महानुभूति, क्षमा, त्याग, सेवा, कोमलता एव सौजन्यता आदि गुण विशेष रूप से पाये जाते है। स्त्री का हृदय नैसर्गिक श्रद्वालु होता है । गुणवान व्यक्ति को देखकर उसे बडा आनन्द प्राप्त होता है। इसी प्रानन्द का दूसरा नाम श्रद्वा है। यह श्रद्धा कई प्रकार की होती है। जीवनोन्नति के प्रारंभ मे स्त्री की श्रद्धा सकुचित रहती है। वह अपने पति, पुत्र, पिता, भाई
और वहिन पर भी रागात्मक रूप से श्रद्धा करती है । इस अवस्था में श्रद्धा और प्रेम इतने मिल जाते है कि उनका पृथक्करण करना कठिन हो जाता है, परन्तु जब यही श्रद्धा वढते-बढते व्यापक रूप धारण कर लेती है तव धार्मिक श्रद्धा के रूप में परिणत हो जाती है। इस परिणमन में विशेष समय नहीं लगता। इसलिए किशोरावस्था से लेकर जीवनावमान तक स्त्री के हृदय मे धार्मिक श्रद्धा की मदाकिनी प्रवाहित होती रहती है। इसी श्रद्धा के कारण महिलाओ ने प्राचीन काल से लेकर अब तक अनेक प्रकार से धर्म की सेवा की है। प्रस्तुत निवध में प्राचीन धर्म-सेविका देवियो के सबध मे प्रकाश डालने का प्रयत्न किया जायगा।
प्राचीन शिलालेखो एव चित्रो से पता चलता है कि जैन श्राविकाओ का प्रभाव तत्कालीन समाज पर था। इन धर्म-सेविकाओने अपने त्याग से जैन-समाज मे प्रभावशाली स्थान बना लिया था। उस समय की अनेक जैन देवियो ने अपनी उदारता एव आत्मोत्सर्गद्वारा जैनधर्म की पर्याप्त सेवा की है। श्रवण वेलगोल के शिलालेसो मे अनेक श्राविका एव आर्यिकापो का उल्लेख है, जिन्होने तन, मन, धन से जैनधर्म के उत्थान के लिये अनेक विपत्तियो का सामना करते हुए भी प्रयत्न किया था। यद्यपि आज वे भूतल पर नही है, तथापि उनकी कीति-गाथा जैन महिलायो को स्मरण दिला