Book Title: Premi Abhinandan Granth
Author(s): Premi Abhinandan Granth Samiti
Publisher: Premi Abhinandan Granth Samiti

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Page 734
________________ सस्कृत साहित्य में महिलाओ का दान ६७६ ६३ मे इस टीका के लिखने के पहले तेरह दिन का पक्ष हुआ था, जो हमेशा नही होता । लक्ष्मीदेवी एक असाधारण विदुषी रमणी थी। विज्ञानेश्वर-कृत 'याश्यवल्क-स्मृति-टीका-मिताक्षरा' पर उन्होने 'मिताक्षरा-व्याख्यान' नामक टोका लिखी है । माधवाचार्य-रचित 'कालमाधव' नामक सुप्रसिद्ध स्मृति-ग्रन्थ पर भी उन्होने बहुत ही सुन्दर टीका लिम्वी है और उसका नामकरण उन्होने अपने नाम के अनुसार 'कालमाधवलक्ष्मी' किया है। लक्ष्मी पूर्ण सरस्वती ही थी। उनकी हर एक पक्ति मे अगणित शास्त्रो का ज्ञान प्रकट रूप से विद्यमान है। उन्होने वैदिक साहित्य, ब्राह्मण, उपनिपद्, सूत्र, महाभारत, प्राचीन और नवीन स्मृति, पुराण और उपपुराण, ज्योतिष और विशेषत व्याकरण आदि के अगविशेष को यथास्थान उद्धृत करके उनकी व्याख्या अपने मत के प्रतिपादन मे जिस निपुणता के साथ की है, उसे देख कर हम लोगो को आश्चर्यचकित हो जाना पडता है । माधवाचार्य प्रगाढ विद्वान और अपने सिद्धान्त-निरूपण मे अकाट्य युक्ति देने में सिद्धहस्त थे। माधवाचार्य-रचित ग्रन्थ पर टीका करना असीम साहस का कार्य है। किन्तु लक्ष्मीदेवी की टीका देखने से ज्ञात होता है कि मौलिक तत्त्वो के अनुसन्धान और विश्लेषण करने में अनेक स्थानो में वे माधवाचार्य से भी आगे बढ़ गई है। माधव जहाँ पर अस्पष्ट है, वहाँ पर लक्ष्मी सुस्पष्ट, जिन पर माधव ने कुछ नहीं कहा है, उन पर लक्ष्मी ने अपनी नारी-सुलभ सरलता और सौजन्यपूर्वक प्रकाश डाला है। लक्ष्मी के समान मरस्वती की पुत्रियाँ कम ही है। 'कालमाधव-लक्ष्मी के सस्करण के प्रथम खण्ड में और दो टीकाएँ साथ-ही-साथ दी हुई है। उनमे से एक टीका 'कालमाधव-लक्ष्मी' से पहले स्वय माधवाचार्य के नाम पर चलती थी। देखा गया है कि उक्त टीका के हिसाव से लक्ष्मी की टीका सर्वोत्कृष्ट है। दूसरी दो टीकाएँ 'कालमाधव' पर ठीक टीकाएं नहीं है। सिर्फ लक्ष्मी ने ही सम्चे ग्रन्थ पर सुचारु रूप से टीका की है। उन्ही के कल्याण, धैर्य और ज्ञान के समुद्र से जगत के कल्याण के लिए 'कालमाधव-लक्ष्मी' टीका निकली है, जो भारत की विशिष्ट निधि है । तत्रशास्त्र मुप्रसिद्ध तात्रिक प्रेमनिधि की पत्नी प्राणमजरी शिक्षा-दीक्षा आदि सब प्रकार से अपने पति की अनुवर्तिनी थी। अठारहवी सदी के प्रथम भाग में उनका जन्म कुमायू मे हुआ था। उनकी 'तत्रराज-तत्र' की टीका का प्रथम परिच्छेद ही बचा हुआ है। बहुत सम्भव है कि उन्होने अवशिष्ट परिच्छेदो की भी टीका की हो, पर कालक्रम से अब वह लुप्त हो गई है। टोका का जितना अश प्राप्त और प्रकाशित हुआ है, उससे प्रमाणित होता है कि उन्होने और भी कितने ही ग्रन्यो की रचना की थी। 'तत्रराज-तत्र' की टीका का नाम 'सुदर्शन' है। उन्होने अपने पुत्र सुदर्शन की मृत्यु के बाद उसे अमरत्व प्रदान करने के खयाल से 'अविनाशी सुदर्शन' नामक टीका की रचना की। इसमें उन्होने तत्रशास्त्र-सम्बन्धी अपनी प्रगाढ निपुणता प्रदर्शित की है। 'तत्र-राजतत्र' की प्रथम कविता की पाँच प्रकार की व्याख्या उनके विशेष पाण्डित्य का द्योतक है। उन्होने अपने पूर्ववर्ती 'मनोरमा' के रचयिता सुभगनाथ आदि टीकाकारो और दूसरे तात्रिको तथा शास्त्रो के मत उद्धृत किए है। कही-कही तो उन्होने अपने मत के प्रतिपादन में उन मतो का समर्थन और कही-कही खण्डन भी किया है। उन्होने तत्रशास्त्र के सूक्ष्म-से-स्दम विचारो पर अपने विचार प्रकट किए है और तत्रशास्त्र के विभिन्न मतो का खडन करके अपने मत का प्रतिपादन किया है। इस प्रकार की विदुषी होने पर भी उन्होने अभीप्ट देवता हैहयनाथ से अपने ग्रन्थ सम्पादन के कल्याणार्थ वर न मांग कर अपने पति की शुभकामना का ही वर मांगा था। तत्रशास्त्र अत्यन्त जटिल है । उस पर इस प्रकार पाण्डित्यपूर्ण प्रकाश डालना सर्वथा प्रशसनीय है। युग-युग से भारतीय महिलाएँ जो ज्ञान-दीप जलाती आ रही है उसके आलोक का अनुसरण कर वर्तमान युग की महिलाएँ भी ज्ञान की अधिकारिणी हो सकती है। इस प्रकार ज्ञान के आलोक का वितरण कर वे देश का कल्याण करेंगी, इसमे सन्देह नहीं। कलकत्ता

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