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प्रेमी - अभिनंदन - प्रथ
नासमझी से समझदारी की तरफ चलने का पहला कदम है 'शका करना'। शका करना ही समझना है, अपनी नासमझी की गहराई शका के फीते से नापी जाती है । यह नापना ही समझदारी है। 'ईश्वर है' यह कह कर सचाई की खोज से भागना है । अपनी नासमझी से इन्कार करना है ।
कितना सच्चा और कितना समझदार था वह, जो मरते दम तक यही कहता रहा, "यह भी ईश्वर नही," "यह भी ईश्वर नही", "यह भी ईश्वर नही" ( नेति नेति नेति) उसकी तरह तुम भी खोज में मिटा दो अपने श्रापको, पर जानकारी को मत छिपायो । 'में नही जानता' कहना जिसको नही आता, वह सच्चा नहीं वन सकता । समाजसेवक तो वन ही नही सकता ।
श्रास्तिकता के लिये अपनी बोली मे लफ्ज है 'हैपन ।" जो यह कहता है कि मुझमें जानकारी है, वही आस्तिक है। जो यह कहता है, "मैं नही जानता कि ईश्वर है" वही आस्तिक है। जो यह नही जानता, "ईश्वर है" और कहता है कि "ईश्वर है" वह नास्तिक है ।
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क्यो ?
"जो नही जानता कि ईश्वर है" यह वाक्य यो भी कहा जा सकता है कि जो जानता है कि ईश्वर नही है । " नही है " -- यही नास्तिकता है ।
मन की ज़मीन में वेजा-डर का जितना ज्यादा खाद होगा, धर्म का वीज उतनी ही जल्दी उसमें जड पकडेगा श्रीर फले-फूलेगा ?
महा-सत्ता यानी वडी ताकत से चाहे हम इन्कार न भी करें, पर बडी शखसियत से तो इन्कार कर ही सकते है । व्यक्तित्व व्यक्ति की इन्द्री और मन का योगफल ही तो है । इनके विना व्यक्तित्व कुछ रह ही नही जाता । श्रव कोई अनन्तगुण वाली शक्ति व्यक्ति नही हो सकती ।
मनका स्वभाव है वह डर कर शेखी मारने लगता है। कहने लगता है। "मैं अजर हूँ, अमर हूँ, और न जाने क्या क्या हूँ ।" धर्म की डीगो की जड में भी अहकार मिल सकता है। जीवन श्राप ही एक बडी पवित्र चीज है । तुम वैसा मान कर आगे क्यो नही बढते ? धर्म तुम्हारे मार्ग में क्यो आडे श्रावे ?
आत्मा को अजर-अमर कह कर धर्म चिंता में पड गया कि वह इतना समय कहाँ वितायेगा । इसलिए उसको मजबूर होकर नर्क - स्वर्ग रचने पडे, पर इन दोनो ने दुनिया का कुछ भलान किया । धर्म के लिये श्राये दिन के झगडो
इनको सिद्ध किया है या प्रसिद्ध, यह वे ही जानें। हिंदू मुसलमान लडकर हिंदू स्वर्ग चले जाते है और मुसलमान जिन्नत । नर्क दोज़ख किसके लिये ? हिंदू मुसलमान लडकर हिंदू मुसलमानो को नर्क भेज देते हैं और मुसलमान हिंदुओ को दोजख । फिर स्वर्ग, जिन्नत किसके लिये ?
फिर एक धर्म दूसरे की वातें काटता है । एक का नैतिक विधान दूसरे को मजूर नही । कहना यही होगा कि ठीक विधान किसी को भी नहीं मालूम ।
असल में कुछ सवाल निहायत जरूरी है और कुछ निहायत जरूरी से मालूम होते है, पर बिलकुल गैरजरूरी । दुनिया ज़रूरी सवालो को छोड कर ग़ैर जरूरी के पीछे पड गई है । इस लिये सुख से दूर पड गई है और समाजसेवा की जगह समाज की दासता में लग गई है । अपना नुकसान करती है और समाज का ।
खाने पहनने का सवाल सबसे जरूरी है ('भूखे भजन न होय गुपाला') । इनको तो हल करना ही होगा । न हम वग़ैर खाये रह सकते है, न बग़ैर पहने। रहने को मकान भी चाहिये। इसके वगैर भी काम नही चलता । इनके बिना जी ही नही सकते। सुख की बात तो एक ओर । जीवन नही तो धर्म कहाँ ?
ज़रूरी से लगने वाले गैर जरूरी सवाल है
१ 'है' की भाववाचक संज्ञा ।