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समाज-सेवा
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पुनर्जन्म, ईश्वर, स्वर्ग-नर्क इत्यादि । इनके हल करने की विरले ही कोशिश करते है और वह भी कभी-कभी । कोई-कोई इन नवाली को बहुत जरूरी समझते हैं, पर वे समझते ही है । कुछ करते नहीं है ।
ईश्वर को कोई माने या न माने, श्राग उसे जरूर जलायंगी पानी उसे जरुर दुवायेगा । कोई ईश्वर को माने या न माने, पानी उसकी प्यास जरूर बुझायेगा । श्राग उमकी रोटी जरूर पकायेगी। हाँ, धर्म के ठेकेदार मानने पर भले ही न माननेवालो को कुछ मज़ा दें । श्रव अगर न मानने वाले का समाज से कोई श्रार्थिक नाता नही है तो समाज का धर्म उनका क्या रोक लेगा ? श्रोर वह क्यां रुकेगा ?
रह गया धर्म यानी मच्चा कर्तव्य । वह तो तुम्हारा तुम्हारे साथ है और हमेगा नाय रहेगा। रह गया धर्म, यानी सच्चा ज्ञान । वह तो तुम्हारा तुम्हारे साथ है और हमेशा रहेगा । रह गया धर्म यानी सच्ची लगन । उसे तुमने कौन छीनेगा ? यह धर्म रोकता नहीं ।
धर्म वही जो हमें सुन्वी करे, हमें वांधे नहीं, हमें रोके नहीं ।
श्रव ग्रापकी तनल्ली हो गई होगी और समाज सेवा के मैदान में कूदने की सारी दिक्कतें भी खत्म हो चुकी होगी और आप हर तरह यह समझ गये होगे कि व्यक्ति जैमे अपने पैरो पर सडा होता जायगा और जैसे-जैसे वह अपने खानेपहनने और रहने के लिये दूमरी पर निर्भर रहना छोटता जायेगा, वैसे-वैसे ही वह मुखी होता जायेगा और समाज को सुखी बनाता जायेगा ।
उसके पास ऐसी चीजें ही नहीं होगी, जिनके लिये उसे सरकार की जरूरत पड़े। हाँ, वह समाज की कुठगी रचना के कारण कुछ दिनों सरकारी टैक्म ने न वच सकेगा, पर इन से उसके सुख में ज्यादा वावा न पडेगी, लेकिन जव उनकी देना देगी और भी वैना करने लगेगे तो उसकी यह दिक्कत भी कम होकर विलकुल मिट जायेगी ।
डी-बडी मम्याश्री का हम तजुरवा कर चुके, तरह-तरह की सरकारें बना चुके, तरह-तरह के धर्मों की स्थापना कर चुके, पर व्यक्ति को कोई मुत्री न बना सका । देखने के लिये प्राजाद, पर हर तरह गुलाम ।
वन अपने को पूरा स्वस्थ रखने में, मव तरह प्रसन्न रहने में, भला और समझदार बनने में, अपने नियम वना कर आजाद रहने में और अपने ऊपर पूरा क़ाबू रखने में ही अपनो की, अपनी और समाज की सेवा है ।
दिल्ली ]