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ऋग्वेद में सूर्या का विवाह
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हे सूर्या (वधू) पूपा हाथ पकड कर तुमको यहाँ से ले जाये और दोनो श्रग्विन् तुमको ( पति के घर) रथ
से पहुँचायें ।
यह तो इस मूक्त में स्पष्ट हो जाता है कि सूर्या को रथ पर बैठा कर ले जाना श्रश्विनो का काम है, परन्तु 'सूर्या' को हाथ पकट कर ले जाने वाला 'पूपा' सोम ही हो सकता है, न कि सूर्या का पिता सविता । कुछ भी हो, 'पूपा' का वास्तविक श्रर्थं इम मूक्त में विचारणीय है । कन्या के द्वारा स्वेच्छापूर्वक वर के चुनाव की बात ऋग्वेद में दूसरी जगह और भी स्पष्ट और कुछ अविक जोरदार शब्दो में पाई जाती है । ऋग्वेद के १० वें मण्डल के २१वें मूक्त का मन्य है
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भद्रा वघूर्भवति यत्सुपैशा
स्वय सा मित्र वनुते जनेचित् ॥ ऋ १०।२१।१२
जो मगलम्बस्पा सुन्दर वधू है, वह मनुष्यों में अपने 'मित्र' (साथी पति) को स्वय चुनती हैं । यहाँ पर 'स्वय वनुते' यह बहुत ही स्पष्ट हैं ।
पति के चुनाव के बाद प्रश्न आता है विवाह की तिथि के निर्णय का। इस विषय में सूर्यामूक्त का १३ वाँ मन्त्र इस प्रकार है
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सूर्याया वहतु प्रागात् सविता यमवासृणत ।
अघासु हन्यन्ते गावोऽर्जुनो पर्युह्यते ॥ १०१६८५ १३
सूर्या का विवाह सववी दहेज (वहतु ) जो सविता ने दिया, पहिले ही भेजा गया, श्रघा ( मघा नक्षत्रों मे श्रर्थात् (माघ मास में) गायें चलने के लिये ताडित की जाती है और अर्जुनी नक्षत्रो में (फाल्गुनी माम में) विवाह के बाद वधू को ले जाया जाता है ।
इम मन्त्र से निम्न बातें हमारे सामने आती है
(१) विवाह में कन्या का पिता' दहेज देता है और वह दहेज विवाह मे पहिले ही भेज दिया जाता है । दहेज के विषय में अधिक विचार श्रागे किया जायगा ।
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(२) 'अघासु हन्यन्ते गाव ' इसका अर्थ सायण करता है कि माघ मास में दहेज में दी हुई गायें सोम के घर जाने को ताडित की जाती है, अर्थात् प्रेरित की जाती है । परन्तु 'राय' (Roth) के अनुसार एक मास पूर्व होने वाले विवाह सवघी भोज के लिये गायें मारी जाती है, ऐसा अर्थ है । यहाँ पहिले भाग मे स्पष्ट रूप से दहेज की चर्चा है और यह बात मानी हुई है कि दहेज की मुख्य वस्तु गायें थी, जो प्रया जामाता को गोदान देने के रूप में आजतक विद्यमान है । इसलिए मायण का श्रयं ही उपयुक्त प्रतीत होता है ।
(३) गायें माघ के मास में भेजी जाती है और विवाह उसके बाद फाल्गुन मास में होता है । फाल्गुन माम ही विवाह का समय था, या केवल सूर्या के विवाह में ही फाल्गुन मास है, यह बात विचारणीय है ।
ऊपर दहेज की चर्चा श्राई है। ऋग्वेद में दहेज विवाह का आवश्यक श्रम प्रतीत होता है । यद्यपि श्राजकल दहेज की प्रया हिन्दू समाज के लिए अभिशाप रुप हो रही हैं, तयापि यह याद रखना चाहिये कि दहेज की प्रथा की मौलिक भावना कन्यात्रो के मवध में उच्च नैतिक श्रादर्श को प्रकट करती है । ससार की उन प्राचीन जातियों में, जहाँ नैतिक आदर्शो का विकास नही हुआ था, प्राय कन्या के विवाह में वन लेने की या दूसरे शब्दो में कन्या को बेचने की प्रथा पाई जाती है । दहेज की प्रथा ठीक उसका उल्टा रूप है ।"
'दहेज देने का सबध विशेषकर भाई के साथ हैं, ऐसा ऋग्वेद के १११०६।२ मन्त्र से प्रतीत होता है ।
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कुछ श्रालोचकों का विचार है कि दहेज की प्रथा के साथ-साथ उससे विपरीत इस प्रथा की भी झलक ऋग्वेद में मिलती है कि वर की ओर से कन्या के माता-पिता को धन दिया जाय ।