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भारतीय नारी की वर्तमान समस्याएँ
६६७ समाज केवल उस घरेलू जीवन का एक विकसित रूप है, जिसके ऊपर समाज की स्थिति निर्भर है। घरेल् जीवन की भाति समाज के भी बड़े कार्यों में स्त्री-पुरुष का सहयोग अवश्यभावी है। यह सहयोग वास्तव में तभी प्राप्त हो सकता है जव स्त्री को पुरुष के साथ राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा कानून-व्यवस्था के क्षेत्रो में समान अधिकार प्राप्त हो।
किंतु भारत की वर्तमान वास्तविक स्थिति इससे बहुत भिन्न है । बहुत समय से भारतीय नारी आर्थिक दृष्टि से दूसरे के अधीन समझी गई है। उसके विविध कार्यो का आर्थिक मूल्य कुछ नहीं आंका गया है, यद्यपि अपनी अनेक सेवानो, प्रयलो, परिश्रम तथा सहानुभूतिमय प्रभाव के द्वारा यह घरेलू जीवन के चलाने में पुरुष के तुल्य ही योग देती है। पुरुष ही कुटुम्ब का प्रधान और जीविका चलाने वाला माना जाता है और इससे वही सर्वेसर्वा होता है। गृहिणी का परिश्रम, जो लगातार घटो गृहस्थी के लिए जीतोड उद्यम करती है, महत्त्वहीन समझा जाता है, मानो उसका श्रम पुरुप की तुलना में बिलकुल नगण्य है। यह पुराना ख्याल कि केवल पुरुष ही आर्थिक नेता है और स्त्री केवल उसकी पिछलगी है, विलकुल भुला देना चाहिए। अव यह वात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि स्त्री भी (सर वेवरिज के शब्दो में) "विना वेतन पानेवाली परिचारिका" है। पुरुष और सारे समाज को यह झूठी वात मस्तिष्क से निकाल देनी चाहिए कि पुरुष स्त्री का भरण-पोपण करता है, क्योकि इसी विचार से हमारे समाज में अनेक भ्रात धारणाओ की सृष्टि होगई है। यदि स्त्री के विषय मे वास्तविक तथ्य को स्वीकार कर लिया जाय तो सपत्ति पर उमका निजी अधिकार अवश्य सिद्ध होगा। ऐसा होने से स्त्री को आर्थिक स्वतत्रता की भी प्राप्ति होगी, क्योकि फिर वह कमानेवाली तथा परिवार का पोपण करने वाली समझी जाने लगेगी।
आज हमे अपने समाज मे दोहरी प्रणाली देख कर परेशानी होती है । इस प्रणाली के द्वारा, जो कठोर एकागी तथा अनैतिक कानूनो के जरिये पुष्टि पा रही है, हमारे दैनिक जीवन का हनन हो रहा है। स्त्री के ऊपर आज पतिव्रत धर्म का वोझ लाद दिया गया है, जब कि पुरुष को वहु-विवाह का अधिकार है । यह बहुत आवश्यक है कि इस प्रकार का वधन हटा दिया जाय और स्त्री-पुरुष दोनो के लिये विवाह-सवधी एक-सा ही नियम हो । अनुभव से ज्ञात हुआ है कि एक-पत्नी-विवाह सबसे अच्छा है, परन्तु यदि कोई गभीर और आवश्यक समस्या उपस्थित हो जाय तो विवाहविच्छेद का भी अधिकार होना चाहिए। यह वडे आश्चर्य की बात है कि कानून दो पागल' या रोगी व्यक्तियो को विना एक-दूसरे की राय के आपस में विवाह करने का अधिकार देता है। इसके द्वारा समाज के प्रति घोर अन्याय किया जाता है। परतु यदि दो विचारशील व्यक्ति, जिन्हें अपने अधिकारो का पूरा ज्ञान है, दोनो के हित की दृष्टि से विशेष कारणवश सवर्ष-विच्छेद करना चाहे,तो कानून उन्हें ऐसा करने से रोकता है और इस प्रकार वे एक विचित्र परिस्थिति में रहने को वाध्य किये जाते हैं। सिविल-मैरिज कानून के अनुसार विच्छेद का अधिकार है, परतु उस कानून के भी नियम अनुचित म्प से जटिल बना दिये गये हैं। वर्तमान दशा मे सवध-विच्छेद के लिये लोगो को अनेक प्रकार के झूठे मामले, जैसे धर्म-परिवर्तन आदि, पेश करने पड़ते है। सवध-विच्छेद को लागू न करने से या उसमें इतनी अडचनें लगाने से यह ग्रागा करना कि इससे वैवाहिक वधन अवश्यमेव सुखप्रद होगा एक दुराग्रह मात्र है। स्त्री और पुरुष के लिये चरित्र सवा पथक्-पृथक नियम बना कर समाज के धर्म को पालन करने का सारा भार स्त्री पर ही डाल दिया गया है और पुरुप को स्वतत्रता दे दी गई है कि वह चरित्र-दुर्वल या व्यभिचारी होते हुए भी क्षम्य है। समाज को यह अच्छी प्रकार से समझ लेना चाहिए कि दो जानवरो के द्वारा खीचे जाने वाली गाडी का यदि सारा बोझ एक ही जानवर पर लाद दिया जाय तो वह गाडी ठीक प्रकार से आगे न बढ सकेगी। इसलिये यह अतीव
आवश्यक है कि हमारे समाज के सारे नियम और उपनियम एक ही प्राधार पर निर्मित किये जाय । कानून और रीतिरिवाज किमी समाज विशेष की आवश्यकता के अनुसार समय-समय पर यथानुकूल बनाये जाते है । जब इन कानूनी का यह उद्देश्य होता है कि उनके द्वारा समाज ठीक ढग से चलता रहे और उसमें अधिक-से-अधिक शान्ति और सुख का सचारहोतब ये कानून समाज के लिये बडे लाभप्रद होते हैं । देश-कालानुसार इन कानूनों में परिवर्तन करना अवश्य