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प्रेमी-अभिनदन-प्रय जव प्रेम का वधन ही टूट गया, जब हमारे हृदयो मे एक दूसरे के प्रति सद्भाव ही नहीं रहा और जिस समय वह मेरे सामने से एक अजनवी की भाति चला गया तव हे सखी | क्यो नही अतीत के दिनो की स्मृति मे मेरा हृदय सौ-सौ टुकडे हो गया?
विज्जिका की प्रतिभा के विषय मे राजशेखर तथा धनदेव आदि कवियों ने उसे कालिदास के वाद म्यान दिया है और उसे साक्षात् सरस्वती स्वीकार किया है।
• विरहिणी प्रति सख्युक्ति । कृशा केनासि त्व प्रकृतिरियमङ्गस्य ननु मे
मला धूम्रा कस्माद् गुरु-जन-गृहे पाचकतया। स्मरस्यस्मान कच्चिन्नहि नहि नहीत्येवमगमत् । स्मरोत्कम्प वाला मम हृदि निपत्य प्ररुदिता ॥
"मारूलाया"। [शिसरिणी] "तुम क्षीण क्यो हो रही हो?" "शरीर ही ऐसा है।" “घूल धूमरित क्यो हो रही हो?" "गुरुजनो की सेवा के लिए निरन्तर पाकशाला में लगे रहने से।" , "क्या हमे पहचानती हो?" "नही | नही। नही |" कह पुन स्मृति से कांपती हुई वाला मेरे वक्ष पर सिर झुका कर रोने लगा।"
"कच"। कि चार-चन्दन-लता-कलिता भुजङ्गय
किं यत्र-यत्र-पद्य मधु सचलिता नु भङ्गया। कि वाननेन्दु-जित-राकदु-रुचो विवाल्य कि भान्ति गुर्जर-वर-प्रमदा-कचाल्य ॥
___ "पद्मावत्या" [वसन्त-तिलकम् ] "चन्दन तरु को नागिनियो ने लपेट रक्खा है या मधुपूरित कमल को भौंरी के समूह ने ढक लिया है या कि राहु के समान यह भँवरे चन्द्रमा को ग्रमना चाहते है। अरे, तो नहीं। क्या यह गुजराती रमणी की सुन्दर मुस छवि है ?"
वाहुकण्ठ, तिलक आदि पर जहां प्रसिद्ध पण्डिता पद्मावती ने अति अनुराग-पूर्ण शैली में लिखा है, ठीक उन्ही भावो का दूसरी दिशा मे अम्वपाली थेरी का वर्णन देखिये--
[पाली] "कालका भमरवण्ण सदिसा वेल्लितग्गा मम मुद्धजा अहु । ते जराय साण वाफसदिसा सच्च वादि वचनम नञ्चया ॥ वापितो व सुरभिकरण्डको पुप्फपूर मयुत्तमङ्गम् । त नराय सस लोम गन्धिक सच्च वादिवचनम नञ्चथा ।" इत्यादि
[थेरीगाथा श्लोक २२५ से २७० तक]