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प्रेमी अभिनवन - प्रथ
मुख्य दहेज़ 'गो' का है, जो पहिले ही भेज दिया जाता था, जैसा कि ऊपर श्राया है, परन्तु उसके सिवाय अन्य दहेज का भी वर्णन सूर्यासूक्त के ७वें मन्त्र मे है
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चित्तिरा उपबर्हण चक्षुरा अभ्यञ्जनम् ।
भूमिः कोश श्रासीद्यदयात् सूर्या पतिम् ॥ ( ऋ० १०१६८५१२ )
चित्ति ( विचार या देवता विशेष ) उसका तकिया था और चक्षु ही नेत्रो में लगाने का अञ्जन या उवटन था । द्युलोक और भूमि ही सूर्या का कोष था, जब कि वह पति के घर गई ।
इस मन्त्र में तो आलकारिक वर्णन होने से दहेज की वस्तुएँ काल्पनिक है, पर यह प्रकट होता है कि (१) तकिया या तकिया से उपलक्षित बिस्तर (पलग आदि ) तथा (२) शृगार सामग्री और (३) बहुत सा धन दहेज में दिया जाता था । दहेज का बहुत कुछ यही रूप अभी तक चला आ रहा है ।
विवाह के समय जिस प्रकार वर के मुख्य कार्यकर्ता पुरुष अश्विन् है, उसी प्रकार कन्या की सहेलियाँ भी होती थी, जो विवाह संस्कार में सहायता देती थी
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रैभ्यासीदनुदेवी नाराशसी न्योचनी ।
सूर्याया भद्रमिद्वासो गाथयेति परिष्कृतम् ॥ ( ऋ० १०२८५२६)
रंभी (ऋचा) उसकी सहेली ( श्रनुदेयी) नाराशसी (ऋचा) उसको पति घर ले जाने वाली ( न्योचनी) थी और सूर्या की सुन्दर वेशभूषा गाया ने सजाई थी ।
सूर्या के विषय में तो सहेलियाँ ऋचाओ के रूप में काल्पनिक है, परन्तु सहेलियो का असली रूप क्या था ? सायण के अनुसार 'अनुदेवी' का अर्थ है वह सहेली, जो वधू के साथ जाती है और 'न्योचनी' जो कि सेविका के रूप में वधू के साथ मे भेजी जाती है, परन्तु इन सब का वास्तविक रूप अभी तक अस्पष्ट ही है ।
इसके बाद सस्कार के समय पुरोहित क्या प्रादेश देता था और वर-वधू का वाग्दान किस रूप में होता था, इस पर सूर्यासूक्त क्या प्रकाश डालता है, यह देखना चाहिए ।
सूर्यासूक्त का पहिला मत्र है
सत्येनोत्तभिता भूमिः सूर्येणोत्तभिता द्यो
ऋतेनादित्यास्तिष्ठन्ति दिवि सोमो श्रधिश्रित ॥ ( ऋ० १०८५११ )
सत्य के द्वारा पृथिवी ठहरी हुई है और सत्य के द्वारा ही सूर्य ने आकाश को सभाल रक्खा है । प्रकृति के अटल सत्य नियम से आदित्य ठहरे हुए है और उसी से श्राकाश मे चन्द्रमा स्थित है ।
विवाह-संस्कार और दाम्पत्य जीवन की भूमिका में क्या इससे सुन्दर भाव रक्खे जा सकते है ? सारा जगत 'सत्य' पर ठहरा हुआ है और वह सत्य ही दाम्पत्य जीवन का आधार है। मानव के अन्दर भगवान का दिव्य रूप सत्य साधना ही है । जीवन भर के लिये किसी को अपना साथी चुनना मानव-जीवन की सबसे पवित्र और सबसे महत्त्वपूर्ण सत्य प्रतिज्ञा है । यह 'सत्य' ही दो हृदयो के ग्रन्थि-वन्धन का श्राधार है । उस सत्य को साक्षी बना कर विवाह सस्कार का प्रारंभ होता है । यह विचित्र सी बात है कि गृह्यसूत्रो में इस महत्त्वपूर्ण मन्त्र को विवाह-संस्कार में स्थान नही दिया । वस्तुत यह एक बडी भूल हुई है । विवाह सस्कार की प्रस्तावना में इस वैदिक ऋचा के द्वारा उच्च मधुर स्वर मे 'सत्य' का आवाहन कितना प्रभावोत्पादक होता होगा ।
इसके वाद विवाह-संस्कार का प्रारंभ होता है, जिसका मुख्य रूप पुरोहित की घोषणा है, जो इस सूक्त के विशेषकर चार मन्त्रो (२४-२७) मे है । ये चारो मन्त्र अत्यन्त सारगर्भित भावो से भरे हुए हैं । यहाँ यह कह देना अनावश्यक न होगा कि इस सूक्त के सारे मन्त्रो का सबध विशेषकर कन्या से ही है, क्योकि विवाह-संस्कार की