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प्रेमी-प्रभिनदन-प्रथ ६६४
मन्त्र के पहिले भाग मे सन्तानो के साथ समृद्ध होने और अपने गृह-स्वामिनी होने के कर्तव्य और अधिकार के विषय में जागरूक रहने का आदेश है । मन्त्र के दूसरे भाग मे गृहस्थ जीवन के चरमनिष्कर्ष को रख दिया है। पति के साथ अपने शरीर को जोडना भौतिक अर्थ मे नही, किन्तु पात्मिक अर्थ में है। (हमारे प्राचीन साहित्य में आत्मा और शरीर दोनो शब्द एक दूसरे के लिये प्राजाते है)। इस प्रकार पति-पत्नी एक हो जाते है और उनके लिये उसके साथ ही सम्मिलित द्विवचन का प्रयोग बुढापे तक अधिकार-पालन के विषय मे आ जाता है। जब पुरोहित ने दोनो को एक कर दिया तब वह कह सकता है -
गृभ्णामि ते सौभगत्वाय हस्त मया पत्या जरदष्टिर्यथास।
भगो अर्यमा सविता पुरन्धिर्मा त्वादुर्गाहपत्याय देवा ।। (ऋ० १०१८२३६) मै सौभाग्य के लिये तेरा हाथ ग्रहण करता हूँ, जिससे कि तू मुझ पति के साथ वृद्धावस्था तक पहुचे। भग, अर्यमा, सविता और पुरन्धि इन देवो ने मुझे गृहस्थ जीवन के कर्तव्य-पालन के लिये तुझे दिया है।
यहां पर एक वात महत्त्वपूर्ण है । 'सौभाग्य' (सोहाग) जो स्त्री के लिये सव से वडे गौरव के रूप में हमारी सारी पिछली सस्कृति में माना गया है, इस मन्त्र के अनुसार पति के लिये भी अपेक्षित है। पति को भी पत्नी के द्वारा अपना सौभाग्य' (सोहाग) चाहिये । इसलिये वैदिक संस्कृति के अनुसार यह 'सोहाग' दुतरफा है, एकतरफा नहीं। इसके बाद दोनो दम्पत्ति मिल कर प्रार्थना करते है -
समञ्जन्तु विश्वे देवा समापो हृदयानि नी । स मातरिश्वा सधाता समुदेष्ट्री दधातु नौ ।
(ऋ० १०६५४७) सारे देव हम दोनो के हृदयो को जोड कर एक कर दे और जल के देवता जल के समान हमारे हृदयो को जोड दे। मातरिश्वा, पाता और देष्ट्री' (देवी) हम दोनो के हृदयो को मिलाएँ।
यह इस सूक्त का अन्तिम मन्त्र है। इसके सिवाय कई आशीर्वादात्मक मन्त्र है जो कम महत्त्वपूर्ण नहीं है और परिस्थिति पर पर्याप्त प्रकाश डालते है । निम्नलिखित मन्त्र में पुरोहित जनता से आशीर्वाद देने के लिए प्रार्थना करता है --
सुमङ्गलीरिय वधूरिमा समेत पश्यत् । सौभाग्यमस्य दत्वा याथास्त विपरेतन ।।
(ऋ० १०८०३३) अच्छे मगलो से युक्त यह वधू है। आनो सव इसको देखो और इसे सौभाग्य (का आशीर्वाद) देकर फिर अपने अपने घरो को लौट जाओ। इस सूक्त के ४२वें मन्त्र मे बहुत सुन्दर आशीर्वाद है, जो सभवत सारी जनता की ओर से है -
इहैवस्त मा वियोष्ट विश्वमायुर्व्यश्नुतम् । क्रीडन्तौ पुत्र नंप्तभि मोदमानो स्वगृहे ॥
(ऋ० १०८५४४२) तुम दोनो यही बने रहो । कभी परस्पर वियुक्त मत होमो और पूरी (मनुष्य जीवन की) आयु को प्राप्त होओ-पुत्री और नातियो के साथ खेलते हुए और अपने घर में आनन्द मनाते हुए।
पुत्रो और नातियो के साथ खेलना वृद्धावस्था का सवसे वडा सौभाग्य है । इसके सिवाय इसी ८५वे सूक्त मे
'देष्ट्री-उपदेश देने वाली वेद की एक देवी जो केवल यहां हो पाई है। सायण के अनुसार देष्ट्री'दात्री फलानाम्' फत्त देने वाली, सरस्वती।