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ऋग्वेद में सूर्या का विवाह
श्री धर्मेन्द्रनाथ शास्त्री ऋग्वेद हिन्दुओ का धार्मिक ग्रथ है अयवा आर्य सभ्यता की प्राचीनतम गाथा, दोनो ही दशाओ मे यह मानना पडेगा कि उसमें हमारी नभ्यता का उद्गम स्रोत विद्यमान है। पुरातत्त्व के विद्वानो के लिये भानव-विकाम की पहेली को नमझने की दृष्टि मे ऋग्वेद का अध्ययन आवश्यक है ही, पर हमारे लिये तो वह अनिवार्य है, क्योकि हमारे राष्ट्रीय जीवन का मूलरुप उममें मौजूद है, जिसका समझनान केवल हमारे समाज के नव निर्माण में सहायक होगा, प्रत्युत वह हमारे जीवन के लिए नवीन स्फूर्ति का सतत श्रोत भी होगा।
हमारे पारिवारिक और सामाजिक जीवन का आधार विवाह की प्रथा है। इस प्रथा के विषय में जो कुछ भी परिचय हमें ऋग्वेद मे मिलता है वह हमारे लिये कितना रुचिकर और उपयोगी होगा, यह कहने की आवश्यकता नही। ऋग्वेद-जैसे विस्तृत आय में विखरी हुई विवाह-मवधी जितनी बातें है, उन सव का सचय कर उन्हें व्यवस्थित रूप में प्रस्तुत करना महान् कार्य है। यह लेख विवाह-सवधी मुख्य सूक्त-'सूर्यासृक्त' (मण्डल १०, सू० ८५)के अध्ययन तक ही सीमित है । उस सूक्त से, जहाँ तक उसका अर्थ इस समय तक समझा जा सका है, विवाह-प्रथा के विषय में हमें जो परिचय मिलता है, वही इस लेख मे दिखाया जायगा। ऋग्वेद आर्यों या भारत-यूरोपीय (IndoEuropean)परिवार काही नहीं, प्रत्युत सारी मानव-जाति का सबसे प्राचीन ग्रथ निर्विवाद रूप से स्वीकार किया जाता है। इसलिए उसमें सूर्या के विवाह का वर्णन मानव-जाति के इतिहास में विवाह का सबसे पुराना वर्णन है और इस दृष्टि से वह हमारे लिये अत्यन्त रोचक है। उस प्रागैतिहासिक काल मे जो विवाह-प्रया की झलक दिखाई देती है, आज तक भी हिन्दुओं के विवाह में वही प्रथा लगभग उसी रूप मे विद्यमान है । सच तो यह है कि सूर्या आर्य-जाति की आदि वधू है और आज भी प्रत्येक आर्यवधू, जो विवाह-मण्डप मे आती है, सूर्या काही रूप है, मानो वार-बार 'सूर्या' ही हमारे सामने आती है। युगान्तरकारी राजनैतिक परिवर्तनो के वीच भी हिन्दुओ ने अपनी सामाजिक प्रयानो को अक्षुण्ण रक्खा है, इसका इमसे वडा प्रमाण और क्या मिल सकता है ?
ऋग्वेद में सूर्या का विवाह प्राकृतिक जगत में होने वाली एक घटना का आलकारिक रूप है, जैसा कि हम आगे देखेंगे। वस्तुत ऋगवेद के अधिकाश देवता प्राकृतिक घटनाओ की पुरुषविध (Anthropomorphic) कल्पना के रूप में है, यह वात प्राय सभी वैदिक विद्वान् स्वीकार करते है। आलङ्कारिक होते हुए भी उस में जो विवाह सम्बन्धी वर्णन है और विशेषकर विवाह के विषय में प्रतिज्ञा-सूचक मन्त्र है उनमें से अधिकाश गृह्य-सूत्रो में दी हुई विवाह की पद्धति में लिये गये है, और वे आज तक हिन्दुओ की विवाह-पद्धति में प्रचलित है। इन ऋचामो में विवाह के सवध में जैसे हृदय-स्पर्शी उदात्त भाव है, वैसे ससार की किसी भी विवाह-पद्धति में मिलना कठिन है।
Winternitz Indian literature Vol P 107
Macdonell. Sanskrit Literature p 67 “ Process of Personification by which natural phenomena developed into gods”
'पारस्कर गृह्यसूत्र काण्ड १, कण्डिका ३-८।
'ऋषि दयानन्दः संस्कारविधि विवाह प्रकरण । तथा षोडश सस्कार-पद्धति गोविन्द प्रसाद शास्त्री रचित (सनातन धर्मरीत्या)-विवाह प्रकरण ।
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