Book Title: Premi Abhinandan Granth
Author(s): Premi Abhinandan Granth Samiti
Publisher: Premi Abhinandan Granth Samiti

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Page 708
________________ जैन समाज के बीसवी सदी के प्रमुख आन्दोलन ६५५ वारीलाल जी सिद्धहस्त लेखक है। क़रीब पाँच वर्ष तक इसी विषय को लेकर पडित जी लिखते रहे । उनकै लेखो के कारण स्थितिपालक पण्डितो में खलबली मच गई और उन्होने विरोध में कई लेख लिखे, लेकिन उनका विशेष परिणाम नही निकला । जैन समाज के कई पत्रो ने इस आन्दोलन में भाग लिया। कुछ ने पक्ष में लिखा, कुछ ने विपक्ष में । समाज ने दोनो प्रकार के लेखो को पढा और तुलना करके अधिकाश बुद्धिजीवी जनता अन्तर्जातीय विवाह के पक्ष में हो गई । उसी समय हमने 'विजातीय मीमासा' पुस्तक लिखी थी, जिसमे अपने पक्ष को युक्ति और श्रागम प्रमाणो से सिद्ध किया था । 1 श्रन्तर्जातीय विवाह की सगति और उपयोगिता को देख कर अनेक लोगो ने इसे क्रियात्मक रूप में परिणत कर दिया | जैन-समाज में धीरे-धीरे अन्तर्जातीय विवाह होने लगे । गुजरात प्रान्त के दिगम्बर जैनो की प्राय सभी उपजातियो में अन्तर्जातीय विवाह होने लगे । अधिकाश मुनिराजो ने वहाँ अन्तर्जातीय विवाह करने वालो के हाथ से आहार ग्रहण किया और वहाँ किसी प्रकार की धार्मिक या सामाजिक रोक नही रही । प्र० भा० दिगम्बर जैन - परिषद् ने इस आन्दोलन को पर्याप्त मात्रा में गति दी । यदि परिषद् के अग्रगण्य नेता और प्रमुख कार्यकर्त्ता स्वय अपनी सतान का अन्तर्जातीय विवाह करने का श्राग्रह रखते तो यह श्रान्दोलन और भी अधिक सफल सिद्ध होता । फिर भी गत बीस वर्ष के अल्प काल में यह आन्दोलन आशातीत सफल हुआ है । (४) जाली ग्रथों का विरोध 1 स्वामी समन्तभद्र ने शास्त्र का लक्षण करते हुए बताया है कि जो प्राप्त के द्वारा कहा गया हो और जिसका खडन न किया जा सके और जो पूर्वापर विरोध रहित हो, वह शास्त्र है । किन्तु दुर्भाग्य से पवित्र जैन - शास्त्रो के नाम पर कुछ स्वार्थी पक्षपाती भट्टारको ने पूर्वाचार्यों के नाम से अथवा अपने ही नाम से अनेक जाली ग्रंथो की रचना कर डाली और वे धर्मश्रद्धा या श्रागमश्रद्धा के नाम पर चलने भी लगे । इसी श्रद्धावश कई सौ वर्ष तक लोगो ने यह नही सोचा कि जो चातें हमारे जैनधर्म सिद्धान्तो के साथ मेल नहीं खाती, वे जिन ग्रंथो मे हैं, वे हमारे शास्त्र क्योकर हो सकते हैं ? ऐसी स्थिति में यह साहस कौन कर सकता था कि धर्म-प्रथो के प्रासन पर आठ उन ग्रंथो को जाली कह दे अथवा उनके बारे में ग्राशका प्रकट करे। यदि कभी कोई दवे शब्दों में शका करता भी तो उसे 'जिन बच में शका न धार' वाली पक्ति सुनाकर चुप कर दिया जाता । किन्तु इस प्रकार के जाली ग्रथ कव तक चल सकते थे । श्रद्धेय प० नाथूराम जी प्रेमी का 'जैन- हितैषी' पत्र निकलना प्रारंभ हुआ । उसमें स्वतंत्र और विचारपूर्ण लेख श्राने लगे ।. कुछ लेखको ने साहस किया और जाली ग्रथो के विरोध में लिखना प्रारंभ कर दिया। जैन समाज में तहलका मच गया। कट्टरपथी घवरा गये । उन्हें ऐसा लगा कि श्रव जैनागम का नाश हुआ । समालोचको के विरुद्ध लेख लिखे जाने लगे, सभाएँ होने लगी और उनका बहिष्कार किया जाने लगा। ज्योज्यो उनका विरोध हुआ, समीक्षको का साहस वढता गया, जिसके परिणामस्वरूप जाली ग्रंथो के विरुद्ध वीस लेख लिखे गये । उनमें से माननीय श्री प्रेमी जी और महान समालोचक-परीक्षक प० जुगलकिशोर जी मुख्तार का नाम सर्वप्रथम लिया जाता है । श्रद्धेय प्रेमी जी ने करीव २० वर्ष पूर्व लिखा था - "वर्षा का जल जिस शुद्ध रूप में बरसता है, उस रूप में नहीं रहता । श्राकाश के नीचे उतरते-उतरते और जलाशयो में पहुँचते-पहुँचते वह विकृत हो जाता है । फिर भी जो वस्तु-तत्व के मर्मज्ञ है उन्हें उन सब विकृतियो से पृथक वास्तविक जल का पता लगाने में देर नही लगती । · वेचारे सरल प्रकृति के लोग इस बात की कल्पना भी नही कर सकते कि घूर्त लोग श्राचार्य भद्रवाहु, कुन्दकुन्द, उमास्वाति, भगवज्जिनसेन आदि बडे-बडे पूज्य मुनिराजो के नाम से भी ग्रथ बनाकर प्रचलित कर सकते हैं ।" हर्ष और सौभाग्य की बात है कि माननीय प० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने अपनी पैनी बुद्धि और तीक्ष्ण लेखनी से ऐसे बनावटी - जाली ग्रंथो के विरोध में श्राज से करीव तीस वर्ष पूर्व तव आन्दोलन खड़ा किया था, जब लोग

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