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प्रेमी-अभिनंदन-प्रथ तथापि यह केवल निष्प्राण रूढि ही रह गई है । अव तो सभी छपे हुए शास्त्रो को चाव से पढते है और उनकी उपयोगिता को अनुभव करते है। जिन्होने छापे का प्रारमिक विरोध अपनी आँखो से नही देखा, वे आज कल्पना भी नही कर सकते कि उसका रूप कितना उग्र था। उस समय ऐसा माना जाता था कि छापे' का यह आन्दोलन जैन-धर्म को इस या उस पार पहुंचा देगा।
(२)दस्साओ का पूजाधिकार दस्सा-पूजा का आन्दोलन भी बहुत पुराना है। स्व०प० गोपालदास जी वरैया इसके प्रधान आन्दोलनकर्ताओ मे मे थे। जिस जमाने में उन्होने इस आन्दोलन को प्रारभ किया था, दस्सा-पूजाधिकार का नाम लेना भी भयकर पाप समझा जाता था। गुरु गोपालदास जी का समाज में वडा ऊँचा स्थान था। वर्तमान समय में जितने भी पडित दिखाई देते है, वे सब प० गोपालदास जी के ऋणी है और वे उन्हें अपना गुरु या 'गुरुणागुरु' स्वीकार करते है। ऐसे प्रकाण्ड सिद्धान्तज्ञ विद्वान ने जब देखा कि जन-धर्म की उदारता को कुचल कर अदूरदर्शी समाज एक बड़े समुदाय-दस्सानो-को पूजा से रोकती है और उन्हें अपने जन्मसिद्ध अधिकार का उपभोग नहीं करने देती तो उन्होने उसके विरोध में आन्दोलन किया और सरेआम घोषणा की कि दस्साओ को पूजन का उतना ही अधिकार है, जितना कि दस्सेतरो को।
गुरु जी की इस घोषणा से भोली-भाली जन-समाज तिलमिला उठी। उसे उसमें धर्म डूवता दिखाई देने लगा। पण्डितो तथा धर्मशास्त्रो से अनभिज्ञ सेठ लोगो ने जैन-सिद्धान्त के मर्मज्ञ गुरू जी का विरोध किया, किन्तु उसका परिणाम यह हुआ कि यह आन्दोलन बहुत व्यापक बन गया ।
यह झगडा जन-पण्डितो और श्रीमानो के हाथो से निकल कर अदालत में पहुंचा। जैन समाज का करीव एक लाख रुपया वर्वाद हुआ और अन्त में जन-धर्म के सामान्य सिद्धान्तो से भी अनभिज्ञ न्यायाधीशो ने फैसला दिया कि चूकि रिवाज नही है, इसलिए दस्साओ को पूजा का अधिकार नहीं है।
इस निर्णय के वावजूद भी आन्दोलन खत्म नही हुआ,क्योकि यह फैसला रिवाज को लक्ष्य करके दिया गया था और रिवाज तो मूढ जनता के द्वारा भी प्रचलित होते हैं। रिवाज का तभी महत्व होता है, जव उसके पीछे तर्क सिद्धान्त या आगम का वल हो, लेकिन दुख है कि रूढि-भक्त जन-समाज ने जैनागम की आज्ञा की चिन्ता न करके अपनी स्थिति-पालकता के वशीभूत होकर दस्सामो को पूजा करने से रोका और वह रोक आज भी पूर्णतया नही हटी है। कुछ वर्ष पूर्व अ०भा० दिगम्बर जैन-परिषद् ने इस आन्दोलन को अपने हाथ में लिया था और उसके आदेशानुसार कुछ कार्यकर्ताओ ने उत्तर भारत के कई नगरो का भ्रमण करके सुधार की प्रेरणा की, जिसके परिणामस्वरूप कई स्थानो पर दस्सामओ ने पूजा प्रारभ कर दी।
दस्सानो के पूजाधिकार के सिलसिले में अनेक मुकदमे अदालतो मे लडे गये और कई स्थानो पर सिरफुटोवल तक हुई। तग आकर कई दस्सा-परिवार दिगम्बर जैन-धर्म का त्याग करके केवल इसलिए श्वेताम्बर हो गए कि उन्हें दिगम्बर-समाज पूजाधिकार देने के लिए तैयार नहीं था।
आन्दोलन के परिणामस्वरूप समाज की मनोवृत्ति में कुछ परिवर्तन अवश्य हुआ है। लेकिन अभी इस दिशा में प्रयल आवश्यक है।
(३) अतर्जातीय विवाह पिछले दो आन्दोलनो की भांति एक और आन्दोलन चला, जिसे विजातीय अथवा अन्तर्जातीय विवाहआन्दोलन कहा जाता है । यद्यपि यह आन्दोलन इस शताब्दी के प्रारम से ही चल रहा है, तथापि इसने अधिक जोर आज से लगभग बीस वर्ष पर्व तव पकडा जब प० दरवारीलाल जी न्यायतीथं ने इसे अपने हाथ में लिया। ५० दर