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समाज-सेवा का श्रादर्श
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मनुष्य का गर्भ से शरीरात तक समस्त जीवन व्यवहार समाज सेवा ही तो है । पूर्वाचार्यों ने भारतीय समाज का जीवनक्रम धर्म का अग बना दिया है। तीर्थंकर भगवान के गर्भ कल्याणक के समय से माता की सेवा में देवागना लगी रहती है। गर्भकाल के आचार-विचार का प्रभाव गर्भस्थ जीव पर पडता ही है । अत माता-पिता का कर्तव्य है कि स्वत अपने आचार-विचार-शुद्धि का ध्यान रक्खे | महाभारत का कथन है कि एक समय जव अभिमन्यु गर्भ में था, अर्जुन सुभद्रा को शत्रु के चक्रव्यूह में किस प्रकार प्रवेश किया जाता है, यह बतला रहे थे कि सुभद्रा को नीद आ गई और चक्रव्यूह से बाहर निकलने की तरकीव न सुन पाई। महाभारत युद्ध में एक अवसर पर जव वीर अर्जुन अन्य स्थान पर लड रहे थे, कुमार अभिमन्यु गर्भ-समय-प्राप्त- ज्ञान के वल से कोरवोका चक्रव्यूह भेद कर उसमें घुस गये, किन्तु बाहर न निकल सके और धोखे में फँस कर मारे गये ।
स्वर्गीय मोहम्मद हुसैन आजाद रचित 'भारतीय कहानियाँ' नामक पुस्तक में लिखा है कि जब श्रकवर गर्भ में था, एक दिन उसकी माता अपने तलुए में सुई गोद कर सुरमा भरकर फूल बना रही थी। हुमायू के कारण पूछने पर उसने उत्तर दिया कि मैं चाहती हूँ कि मेरे पुत्र के तलुए में ऐसा ही फूल हो । कहा जाता है कि जब अकवर पैदा हुआ तो वैसा ही फूल उसके • तलुए में था ।
अकलक-निकलक की कथा तो प्रसिद्ध ही है कि माता-पिता के सदाचार का प्रभाव उन बालको पर ऐसा पड़ा कि जव माता-पिता ने श्रष्टाह्निक पर्व मे आठ दिन के लिए ब्रह्मचर्य व्रत लिए तो इन वालको ने भी ब्रह्मचर्य - व्रत ग्रहण कर लिया और जव इनके विवाह का प्रस्ताव हुआ तो इन्होने कह दिया कि हम तो ब्रह्मचर्य व्रत गोकार कर चुके । वाल-ब्रह्मचारी रह कर, निकलक ने धर्मार्थ प्राणों का बलिदान किया और अकलक की उमर जिन-धर्मप्रचार में ही व्यतीत हुई ।
जन्म दिन से आठ वर्ष तक शिशु-पालन, शिक्षण माता-पिता द्वारा होता है। माता-पिता के अच्छे-बुरे, श्राचार-विचार, क्रिया वर्त्तावि का गहरा प्रभाव बच्चे पर पडता है। माता-पिता की बोलचाल बच्चा विना सिखाए सीख जाता हैं | वह उसकी मातृभाषा कहलाती है । असभ्य गन्द, गाली, सभ्यवाक्य, कटुवचन, मीठा वोल, arगात्मक प्रयोग, हितकर सीधी बोलचाल, प्रहारात्मक उच्च स्वर मे या जल्दी-जल्दी बोलना, अथवा वीरे-धीरे स्पष्ट मन्द स्वर में, मीठे प्यारे शब्दों में वात करने की आदत, नम्रता या उद्दण्डता, बच्चा माता-पिता से विना सिखाये स्वत सीख जाता है । उसी को सस्कार, आदत अथवा अभ्यास कहते है । यह देखा जाता है कि कुछ बच्चे मातापिता तथा कौटुम्बिक गुरुजनो को प्रात ही प्रणाम करते है । उनके सामने विनय-पूर्वक उठते-बैठते है | आदरश्रद्धा सहित व्यवहार करते है, चरण छूते हैं, आते देख कर खडे हो जाते है, स्वय नीचा श्रासन ग्रहण करते हैं, विनय भाव से बैठते है और शिक्षा ग्रहण करते है । इसके विपरीत कुछ बच्चे विस्तर से रोते, शोर मचाते उठते है, आपस में लडतेझगडते, गाली-गलौज, छोटी-छोटी बातो पर छीना-झपटी, मारपीट करते रहते हैं । मुँह उठाये चले आते हैं, ऊँचे स्थान पर आ बैठते है, या लेट जाते है, गुरुजनो की शिक्षा या कथन ध्यान से नही सुनते और न मानते है । कुछ को तो यह कटेव पड जाती है कि अपने लिए सदैव 'हम' शब्द का प्रयोग करते है और अन्य श्रपने वरावर या वडो को अनादर भाव मे सबोधन करते हैं । हमेशा चिल्लाकर बोलते है । अपने छोटे भाई-बहनो से भी छीना-झपटी, लडाईझगडा, कटुवचन व्यवहार करते हैं । उन बच्चो के ये बुरे सस्कार और कुटेव उमर भर उनके लिये हानिकारक और कष्टोपकारक होते है । माता-पिता का धर्म है कि आत्म-सयम करें, ताकि बच्चे उनका अनुसरण करें । वच्चो को धमकाना, मारना पीटना, बुरा कहना, गाली देना, भयभीत करना, लालच देना, धोखा देना, उनसे झूठ वोलना, कदापि किमी परिस्थिति में भी उचित या क्षम्य नही । "लालयेत् पच वर्षाणि, दश वर्षाणि ताडयेत्" की कहावत ठीक एव अनुकरणीय नही है । वह चाहे चाणक्य नीति हो, किन्तु धार्मिक नीति नही हो सकती । यदि बच्चे से भूल हो जाय, नुकसान हो जाय तो उसे समझा देना चाहिए। बच्चे की माँग सदैव पूरी करनी चाहिए । धोखा देकर टालना ठीक नही । प्राय देखा जाता है कि यदि बच्चा कोई चीज मांगता है तो उसको यह कहकर टाल