________________
६४८
प्रेमी अभिनदन- प्रथ
दिया जाता है कि "कल ला देंगे ।" दूसरे दिन जब उसकी श्राशा पूरी नही होती और फिर कल का वहाना किया जाता है तो उसके विश्वास को ठेस लगती है और फिर भी उसकी आशा पूरी न होने पर वह समझ जाता है कि मुझे धोखा दिया गया है । उसका विश्वास उठ जाता है और वह मान लेता है कि धोखा देना, झूठ बोलना ही ठीक है ।
प्राचीन भारत मे श्राठ वरस की उमर से ग्रामीण और नागरिक, सभी को, प्राथमिक श्रेणी की धार्मिक श्रीर लौकिक शिक्षा अनिवार्य रूप से दी जाती थी । वालक-बालिका सवको लिखना-पढना और जीवन-निर्वाह का काम रोजगार, दूकानदारी, वाणिज्य, असि, मसि, कृषि सिखलाना समाज का और राज्य का धार्मिक कर्त्तव्य था । शिक्षा बाजारू विकाऊ वस्तु न थी । गुरु दानरूप शिक्षा प्रदान करता था और शिष्य विनयपूर्वक शिक्षा ग्रहण कर चुकने पर अपनी शक्ति के अनुसार गुरु-दक्षिणा रूप भेट समर्पण करता था ।
प्राचीन भारत इतिहास मे नालदा विश्व विद्यालय विख्यात विद्या - केन्द्र था। चीन देश के दो विद्वान् वहाँ ये, बरसो रहे, विद्या अध्ययन किया और पन्द्रह वरस के श्रात्म अनुभव से वहाँ का विस्तीर्ण वृत्तान्त लिखा । उमी कथन के आधार पर सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ डाक्टर राधाकुमुद मुकर्जी ने अपनी पुस्तक "Ancient Indian Education" मे नालदा का ऐतिहासिक वर्णन लिखा है । उस पुस्तक से सक्षिप्त उद्धरण जनवरी १९४० के “Aryan Path” मे प्रकाशित हुआ । १३०० वरस गुजरे। तव नालदा में ८५०० विद्यार्थी और पन्द्रह मी अध्यापक निवास करते थे । भारत के विविध प्रान्तो के रहने वाले तो उनमें थे ही, परन्तु चीन, जापान, कोरिया, मगोलिया, बुखारा, तातार देश से आये हुए विद्यार्थी भी वहाँ शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। सो-सो विविध विषयो पर हर रोज विवेचन होता था और रात दिन अध्यापको और प्रोढ शिष्यों में पारस्परिक चर्चा रहती थी । किमी को भोजन, वस्त्र आदि किसी आवश्यक वस्तु की चिंता न थी । विद्यार्थियों से किसी रूप में फीस नही ली जाती थी। राज्य ने कई सौ ग्राम नालदा विश्वविद्यालय को समर्पण कर दिये थे । सैकडो मन अनाज, घी, दूध श्रादि प्रति दिवस वहाँ पहुँचा दिया जाता था । नालदा के स्नातको का दुनिया भर में अपूर्व सत्कार होता था । ऐसे उच्चतम विद्याकेन्द्र में भरती हो जाना आसान काम न था । प्रार्थी की वैयिक्तिक योग्यता की कडी परीक्षा करके १०० में २० प्रार्थी ही प्रविष्ट होने में सफल होते थे । वहाँ किसी प्रकार की सिफारिश या प्रलोभन से काम नही चलता था। नालदा की गगनस्पर्शी विहार-श्रेणियो के भग्नावशेष पावापुरी के पास अव भी मोजूद है । उस समय की ईंट डेढ फुट लवी श्रीर एक फुट चौडी होती थी । नालदा के विशाल शास्त्र भडार के लिखित ग्रन्थ कही कही नेपाल और तिव्वत के ग्रन्थागारों में मिल जाते है ।
पूर्व मे नालदा और पश्चिम मे तक्षशिला नाम की लोकविरयात विद्यापीठ थी । तक्षशिला के भी भग्नावशेष विद्यमान है । वहाँ का प्रदाजा भी नालदा के सक्षिप्त वर्णन से लगाया जा सकता है।
वैदिक काल की शिक्षण-पद्धति का वर्णन तैत्तिरीय उपनिषद् ( प्रथम खण्ड, अध्याय ११ ) से विदित होता है । उपनयन संस्कार के समय कहा जाता था, "तू आज से ब्रह्मचारी हो गया, प्राचार्याघीन होकर वेदाध्ययन कर ।" उस दिन से शिक्षा की सम्पूर्णता तक वह गुरुकुल में ही रहता था । सामान्यतया इसकी अवधि वारह वरम होती थी, किन्तु ब्रह्मचारी की वैयक्तिक योग्यतानुसार घटवढ जाती थी । गुरु का श्रन्तिम आदेश यह होता था, "सच बोलो, धर्माचरण करो, स्वाध्याय करते रहो, सदाचार का पालन करो, ऐहिक स्वार्थाघीन होकर परमार्थ को न भूलो।"
डाक्टर देवेन्द्रचन्द्रदास गुप्त श्रध्यापक कलकत्ता यूनिवर्सिटी रचित 'शिक्षा की जैन पद्धति' ('Jain system of Education' ) में लिखा है - जैन साधु सघ के विहार धार्मिक तथा साहित्य, कला, व्यायाम श्रादि सास्कृतिक शिक्षा प्रदानार्थं मगध से गुजरात और विजयनगर से कौशल तक फैले हुए थे । भिन्न धर्मानुयायी और समस्त श्रेणी के विद्यार्थी, विविध कार्य - कला - शिक्षा प्राप्ति के अर्थ उनमे प्रविष्ट हो सकते थे । आठ बरस की उमर से बालकवालिका एक साथ शिक्षा पाते थे । विद्यार्थी की रुचि का भले प्रकार अंदाजा करके यथोचित शिक्षा दी जाती थी । प्रजा की उन्नति और उसके जीवन को सुखी बनाने के लिये राज्य की थोर से काफी सहयोग दिया जाता था । विद्यार्थी