Book Title: Premi Abhinandan Granth
Author(s): Premi Abhinandan Granth Samiti
Publisher: Premi Abhinandan Granth Samiti

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Page 699
________________ आदर्श श्री अजितप्रसाद श्री तत्वार्थाधिगम मोक्षशास्त्र (अध्याय ५ सूत्र २१ ) मे आचार्य श्रीमद् उमास्वामी ने कहा है, "परस्परोपग्नहोजीवानाम् ।" समस्त देहस्य ससारी जीवो का व्यावहारिक गुण, तद्भव स्वभाव, पर्याय बुद्धि, कर्तव्य, उनके अस्तित्व का ध्येय, उनके जीवन का उद्देश्य यही है कि एक दूसरे का उपकार करें । स و -सेवा 'तत्वार्थसूत्र' की सर्वार्थसिद्धि टीका में इस सूत्र की व्याख्या इस प्रकार है - "स्वामी भूत्य, श्राचार्यशिष्य इत्येवमादिभावेति वृतिः परस्परोपग्नहो, स्वामी तावद्वित्त-त्यागादिना भृत्यानामुपकारे वर्तते । भृत्याश्च हितप्रतिपादनेनाहितप्रतिषेधेन च । श्राचार्य उभयलोक फलप्रदोपदेशदर्शनेन, तदुपदेशविहित क्रियानुष्ठापनेन च शिष्याणामनुग्रहे वर्तते । शिष्या अपि तदानुकूल्यवृत्या श्राचार्याणामुपकाराधिकारे ।" श्री जुगमन्दरलाल जैनी ने इस सूत्र की अग्रेजी में टीका लिखी है- “The function of (mundane) souls is to support each other We all depend upon one another. The peasant provides corn, the weaver clothes, and so on.” श्लोकवार्तिक, राजवार्तिक, अर्थप्रकाशिका आदि अन्य टीकाप्रो में भी इसी प्रकार इस सूत्र का अर्थ किया है । जैनमुनि उपाध्याय श्रीमद् आत्माराम महाराज द्वारा सगृहीत 'तत्वार्थसूत्र जैनागम समन्वय' मे भी ऐसी ही व्यास्या पाई जाती है । शास्त्री प० सुखलाल सघवी ने तत्त्वार्थ सूत्र - विवेचन में लिखा है -- " परस्पर के कार्य मे निमित्त होना यह जीवो का उपकार है। एक जीव हित या अहित द्वारा दूसरे जीव का उपकार करता है । मालिक पैसा देकर नौकर का उपकार करता है और नौकर हित या अहित की बात कहकर या करके मालिक पर उपकार करता है । आचार्य सत्कर्म का उपदेश करके उसके अनुष्ठान द्वारा शिष्य का उपकार करता है और शिष्य अनुकूल प्रवृत्ति द्वारा आचार्य का उपकार करता है ।" तत्त्वार्थ सूत्र के आधार पर समाज सेवा प्राणी मात्र का धर्म है । प्रस्तुत प्रकरण में समाज सेवा का क्षेत्र मनुष्य-समाज-सेवा तक सीमित समझा गया है। महाकवि प्राचार्य श्री रविषेण प्रणीत महापुराण जैनागमानुसार आधुनिक अवसर्पिणी के चतुर्थ काल के प्रारंभ में कर्मभूमि को रचना श्री ऋषभदेव तीर्थकर के समय में हुई । भगवान् ऋषभदेव युगादि पुरुष थे । श्रीमद् भागवत् पुराण मे ऋषि वेदव्यास ने उनको नाभिराजा और मरुदेवी के पुत्र ऋषभावतार माना है और यह भी कहा है कि विष्णु भगवान के इस अवतार ने अपने सौ पुत्रो मे से ज्येष्ठतम पुत्र भरत चक्रवर्ति को राज्य सिंहासनारूढ करके दिगम्वरीय दीक्षा और दुद्धर तपश्चरण के प्रभाव से परमधाम की प्राप्ति की । कालचक्र और ससार-रचना तो अनादि और अनन्त है, फिर भी काल के उतार-चढाव के निमित्त से जगत् का रूप ऐसा बदलता रहता है कि एक अपेक्षा से, पर्यायार्थिक नयसे जगत् की उत्पत्ति और सहार भी कहा जा सकता है । चौथे काल के पहिले योगभूमि की रचना इस मर्त्यलोक में थी, जिसकी रूप-रेखा उस समय स्वर्गीय जीवन से कुछ ही कम थी । उस समय के मनुष्यो की समस्त आवश्यकताएँ कल्पवृक्षो द्वारा पूरी हो जाती थी । उनको जन्म-मरण, इष्टवियोग- अनिष्टसयोग, आधि-व्याधि, जरा-रोग, विषाद-दारिद्र्य आदि दु खो का अनुभव तो दूर, उनकी कल्पना भी नही होती थी। योगभूमि का समय बीत जाने पर कर्म भूमि का प्रारंभ हुआ । समाज-सगठन या समाज-सेवा का आयोजन आदिपुरुष श्री ऋषभदेव ने किया, उनके पुत्र भरत चक्रवर्ति के राज्य में समाज-सेवा का क्षेत्र विस्तीर्ण हुआ और उत्तरोत्तर व्यापक ही होता गया ।

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