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बुन्देलखण्ड का एक महान सगीतज्ञ
५६५ बडे-बडे उस्तादो के कठिन गायन के साथ तवला वजाया था। उनको अपने फन पर नाज़ था। प० गोपालराव भी वैठक में थे। मै उनके पास ही था। एक और सज्जन ने, जिन्होने मराठे प्राचार्य का तबला सुना था, उनके ताल की तारीफ की। इस पर मराठे सज्जन ने नम्रता तो प्रकट की नही, जरा दम्भ के साथ बोले, "मैंने श्री कृष्णराव पडित के साथ बनाया है। उन्होने मेरा लोहा माना । और भी बहुत-से बडे-बडे उस्तादो के साथ वजाया है और उनको हराया है। आज उस्ताद आदिलखां की उस्तादी की परख करनी है।"
आदिलखां पहले जरा मुस्कराए। फिर उनकी त्यौरी बदली, होठ फडके और दवे । एक क्षण उपरान्त गला सयत करके वोले, “देखिए राव साहब, उस्तादो की जगह सदा से खाली है। इसलिए इतनी बड़ी बात नही कहनी चाहिए। आज जो यहां इतने लोग है, आनन्द के लिए इकट्ठे हुए है। झगडा-फसाद सुनने के लिए नही । इमलिए मजे को क्यो किरकिरा करते हो?"
राव साहब न माने । कहने लगे “यह तो अखाटा है, उस्ताद | लोगो को मुठभेड में ही आनन्द प्राप्त होगा।"
"तव हो।"उस्ताद ने चिनौती स्वीकार करते हुए कहा, “शुरु करिए।" उस्ताद ने तम्बूरा लिया। ध्रुवपदाङ्ग ख्याल का प्रारम्भ किया। इस प्रकार का ख्याल केवल उस्ताद का घराना गाता है। इनके पिता स्वर्गीय बिलासखाँ वहुत बडे गवैये थे और पितामह उस्ताद मिठूखाँ का देहान्त उस समय के धौलपूर नरेश के दरबार में एक प्रतिद्वन्द्वता में तान लेते-लेते हुआ था। मिठूखों के पिता पुरदिलखां और पुरदिलखाँ के पिता केसरखाँ तथा केसरखां के पिता मदनखाँ सव अपने जमाने के नामी गये थे। इस घराने का ख्याल ध्रुवपद के अङ्ग से उठता है और उत्तरोत्तर तेज सजीव ख्याल का रूप धारण करता चला जाता है । यह परिपाटी और किसी गवैये मे, श्री प्रोकारनाथ और फैयाजखाँ को छोड कर, नही है । अन्य गवयो के ख्याल की मनोहरता शुरू से ही लय की अति द्रुतगति की कारीगरी मे विलीन हो जाती है । वे प्रारम्भ से ही ताने लेने लगते है और ख्याल के कण नही भरते । इसीलिए अनेक ध्रुवपदिये इस परिपाटी को नापसन्द करते है और यहां तक कह देते है कि ख्यालिये तो बेसुरे होते है। परन्तु आदिलखां के घराने की परिपाटी इस दोप से सर्वथा मुक्त है। आरम्भ में उनका ख्याल ध्रुवपद-सा जान पडता है। स्वर सीधे और सच्चे लगते है। कुछ क्षण उपरान्त गमकै पिरोई जाती है और फिर शनै -शनै क्रमागत अलकार भरे जाते है। इसके पश्चात् तव, लय द्रुत और अति दूत की जाती है।
उस्ताद आदिलखां ने उस रात अपने घराने की परिपाटी का एक ख्याल उसी सहज ढग से प्रारम्भ किया । परन्तु एक अन्तर के साथ-लय इतनी विलम्बित कर दी कि ताल का पता ही नही लग रहा था |
थोडी देर तक तवले के उक्त आचार्य ने परनो और टुकडो में अपने अज्ञान को छिपाया, परन्तु यह करामात वहुत देर तक नहीं चल सकती थी। आदिलखां ने टोक कर कहा, “सम पकडिए, सम।"
सम कहां से पकडते । तवलिये की समझ मे ताल ही नहीं पाया था। उस्ताद हँसे और उन्होने अपने हाथ की ताली से ताल देना शुरू किया। वोले, "अव तो समझिए। हाथ से ताल देता जा रहा हूँ।" परन्तु लय इतनी अधिक विलम्बित थी कि तवलिया न तो ताल को समझ सका और न 'खाली' 'भरी' को । सम तो अब भी उससे कोसो दूर था।
झखमार कर, खीझ कर, लज्जित होकर तवला-शास्त्री ने तवला वजाना बन्द कर दिया। कठावरोध हो गया। हाथ जोड कर उस्ताद से वोला, "मै माफी चाहता हूँ। मैं नहीं जानता था कि आप इतने बडे उस्ताद है। यह ताल मैने कभी नही बजाया। ब्रह्मताल, लक्ष्मीताल इत्यादि तो बहुत वजाए है, परन्तु यह ताल नहीं। इसीलिए चूक गया।"
उस्ताद को यकायक हँसी आई। तम्बूरा रख कर और गम्भीर होकर बोले, "बहुत सीधा ताल है। आप उसे प्राय वजातेहै।"
तवलिया ने आश्चर्य से कहा, "ऐं।"