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प्रेमी-अभिनदन-प्रथ मैने उत्तर दिया, "किसी से नहीं। भारतखडे की पुस्तको से।" "अजी, पुस्तको से सगीत नही आता।" "क्या करता मन भरने योग्य गुरू न मिलने के कारण पुस्तको का ही सहारा लेना पड़ा।" "किसी दिन मै अपना गाना सुनाऊँगा।"
यह बात आज से वाईस वर्ष पहले की है। तब से उस्ताद आदिलखां के साथ मेरा सम्बन्ध उत्तरोत्तर वढता चला गया और अब तो वह मेरे छोटे भाई के वरावर है।
(२) सन् १९२५ के नवम्बर की वात है। चिरगांव से एक वरात ललितपुर गई। वरात मे भाई श्री मैथिलीशरण गुप्त, स्वर्गीय मुशी अजमेरी जी तथा प्रसिद्ध सगीतज्ञ श्री लक्ष्मणदास मुनीम (हिन्दू विश्वविद्यालय काशी के सगीत के प्रोफेसर) और बनारस के विख्यात शहनाई बजानेवाले थे। मै आदिलखां को एक दिवस उपरान्त झामी से ले पहुंचा। सवेरे का समय था। बनारस की शहनाई वज रही थी। शहनाई वाले झूम-झूम कर टोडी की ताने ले रहे थे। उस्ताद आदिलखां को चिरगांव के सभी वराती जानते थे, परन्तु मुनीम जी और शहनाई वाले उनकी ख्याति से थोडे ही परिचित थे। मैने और उस्ताद ने उनको पहले-पहल ही देखा था। हम लोग एक ओर को वैठ गए। अभी शहनाई समाप्त नहीं हुई थी कि आदिलखां ने मेरे कान में कहा, “प्रच्छी वजाते है, पर मेरी भी टोडी होनी चाहिए।"
शहनाई के समाप्त होते ही मैने उस्ताद से गवाने का अनुरोध किया। भाई मैथिलीशरण जी तथा मु० अजमेरी जी उस्ताद का गाना सुन चुके थे। उनका अनुमोदन होते ही आदिलखां का गाना प्रारम्भ हो गया। उस्ताद ने विलासखानी टोडी छेडी और ऐसा गाया कि हम लोग तो क्या, शहनाई वाले और प्रोफेसर लक्ष्मणदास मुनीम भी मुग्ध हो गये। ग्यारह वज गये। कोई उठना नहीं चाहता था, परन्तु स्नान इत्यादि से निवृत्त होना था। इसलिए बैठक दोपहर के लिए स्थगित कर दी गई।
दुपहरी की बैठक में सारग गाने के लिए आग्रह हुआ। उस्ताद ने पूछा, "कौन सा सारगगाऊँ ? सारग नौ प्रकार के है। जिस सारग का हुकुम हो, उसी को सुनाऊँ।' मुनीम जी ने प्रस्ताव किया, "पहले शुद्ध सारग सुनाइए।"
यहां यह कह देना आवश्यक है कि यह राग तानो और मीड मसक की गुजाइश रखते हुए भी अच्छे गयो की कारीगरो की परीक्षा की कसौटी है। उस्ताद ने मुस्करा कर कहा, “बहुत अच्छा।"
मुनीम जी ने हारमोनियम लिया। वह इसके पारगत थे। आदिलखां ने शुद्ध सारग ऐसी चतुराई के साथ गाया कि श्रोता मन्त्रमुग्ध-से हो गये। मुझको ऐसा भान हुआ मानो गर्मियो के दिन हो। लू चल रही हो। कोकिलाएँ प्रमत्त होकर शोर कर रही हो। मुझ समेत कई श्रोतामो को पसीना आ गया। शुद्ध सारग के समाप्त होते ही मुनीम जी ने कहा, "मै पैतीस वर्ष से हारमोनियम पर परिश्रम कर रहा हूँ और अनेक बडे-बडे गवयो को सुना है, परन्तु जैसा सारग आज सुना वैसा पहले कभी नहीं सुना।"
उस्ताद ने कहा, “अजी, मै किस योग्य हूँ।"
उस्ताद की कोई जितनी प्रशसा करे वह उतने ही नम्र हो जाते है, वास्तविक रूप में, परन्तु यदि कोई उनके स्वाभिमान को चोट पहुंचाये तो उसकी मुसीवत ही आई समझिए।
__ मन् १९२७-२८ की बात होगी। ग्वालियर से एक मराठे सज्जन तवला वजाने वाले आए। उनको अपने ताल-ज्ञान का और तवला बजाने का बहुत अभिमान था। तबला वह बजाते भी बहुत अच्छा थे। मेरे घर बैठक हुई। जगह छोटी थी, फिर भी झांसी के लगभग सभी जानकार और संगीतप्रेमी आ गए। तबला वाले मराठा सज्जन को आदिलखां के गायन का साथ करना था। मराठा सज्जन अपने शास्त्र के प्राचार्य थे और उन्होने अनेक