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जैन संस्कृति में सेवा-भाव
जैन-मुनि श्री श्रमरचन्द्र उपाध्याय
जैन सस्कृति की आधारशिला प्रधानतया निवृत्ति है । अत उसमें त्याग और वैराग्य तथा तप और तितिक्षा आदि पर जितना अधिक जोर दिया गया है, उतना और किसी नियम विशेष या सिद्धान्त विशेष पर नही । परन्तु जैन धर्म की निवृत्ति साधक को जन सेवा की ओर अधिक-से-अधिक आकर्षित करने के लिए है। जैन धर्म का आदर्श ही यह है कि प्रत्येक प्राणी एक दूसरे की सेवा करे, सहायता करे और जैसी भी अपनी योग्यता हो, उसी के अनुसार दूसरो के काम आये । जैन धर्म में जीवात्मा का लक्षण' ही सामाजिक माना गया है, वैयक्तिक नही । प्रत्येक सासारिक प्राणी अपने सीमित अश में अपूर्ण है, उसकी पूर्णता आसपास के समाज मे और सघ मे है । यही कारण है कि जैन संस्कृति का जितना अधिक झुकाव आध्यात्मिक साधना के प्रति है, उतना ही ग्राम-नगर और राष्ट्र के प्रति भी है । ग्राम-नगर और राष्ट्र के प्रति अपने कर्त्तव्यो को जैन साहित्य मे धर्म' का रूप दिया है और भगवान् महावीर ने अपने धर्म प्रवचनो में ग्रामव, नगरधर्म और राष्ट्रधर्म को बहुत ऊंचा स्थान दिया है । उन्होने प्राध्यात्मिक क्रियाकाण्ड प्रधान जैनधर्म की साधना का स्थान ग्रामघर्म, नगरधर्म और राष्ट्रधर्म के बाद ही रक्खा है, पहले नही । एक सभ्य नागरिक एव देशभक्त ही सच्चा जैन हो सकता है, दूसरा नही । उक्त विवेचन के विद्यमान रहते यह कैसे कहा जा सकता है कि जैनधर्मं एकान्त निवृत्ति प्रधान है अथवा उसका एकमात्र उद्देश्य परलोक ही है, यह लोक नही । जैन गृहस्थ जव प्रात काल उठता है तो वह तीन सकल्पो का चितन' करता है । उनमे सबसे पहिला यही सकल्प है कि मैं अपने धन का जन-समाज की सेवा के लिए कव त्याग करूंगा। वह दिन धन्य होगा, जव मेरे सग्रह का उपयोग जन-ममाज के लिए होगा, दीन-दुखितो के लिए होगा । भगवान महावीर का यह घोष हमारी निद्रा भग करने के लिए पर्याप्त है - " प्रसविभागी न हु तस्स मोक्खो ।"" अर्थात् — मनुष्य का कर्त्तव्य है कि वह अपने सग्रह के उपभोग का अधिकारी केवल अपने श्राप को ही न समझे, प्रत्युत अपने आस-पास के साथियो को भी अपने वरावर का अधिकारी माने । जो मनुष्य अपने साधनो का स्वय ही उपभोग करता है, उसमें से दूसरो की मेवा के लिए कुछ भी श्रर्पण नही करना चाहता है, उसको कभी भी मोक्ष प्राप्त नही हो सकता । "
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जैन धर्म में माने गये मूल आठ कर्मों मे मोहनीय कर्म का स्थान वडा ही भयकर है। आत्मा का जितना अधिक पतन मोहनीय के द्वारा होता है, उतना और किसी कर्म से नही । मोहनीय के सबसे अन्तिम उग्ररूप को महामोहनीय कहते हैं । उसके तीस भेदो में से पच्चीसवाँ भेद यह है " यदि आपका साथी बीमार है या किसी और सकट मे पडा हुआ है, आप उसकी सहायता या सेवा करने में समर्थ है, कि इसने कभी मेरा काम तो किया नही, में ही इसका काम क्यो करूँ क्या ?" भगवान महावीर ने अपने चम्पापुर के धर्मं प्रवचन में स्पष्ट ही कर्त्तव्य के प्रति उदासीन होता है, वह धर्म से सर्वथा पतित हो जाता है । उक्त पाप के कारण वह सत्तर कोटाकोटि
फिर भी सेवा न करें और यह विचार करे
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कष्ट पाता है तो पाये अपनी वला से, मुझे यह कहा है- "जो मनुष्य इस प्रकार अपने
सागर तक चिरकाल जन्म-मरण के चक्र में उलझा रहेगा, सत्य के प्रति श्रभिमुख न हो सकेगा ।"
'परस्परो पग्रहो जीवानाम् — तत्त्वार्थाधिगम सूत्र ।
२ 'स्थानाग सूत्र, दशमस्थान ।
३ स्थानाग सूत्र, ३, ४, २१
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दशवकालिक सूत्र, &, २, २३
दशाश्रुत स्कन्ध-नवम दशा ।
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