________________
1
समाज-सेवा
६३६ रूप बनाये असन्तोप उसे लुभाये फिरता है और घुमाये फिरता है । हिरन की तरह लू की लपटो को पानी मान कर दुनिया उनके पीछे-पीछे दौड़ी चली जा रही है। तुम बुद्धिमानी के साथ सुख कमाने में लगो । उसे असतोष के पीछे दौडने दो ।
कितना ही मूरख क्यो न हो, 'क्यों' और 'कैसे' को अपनाने से वुद्धिमान वन सकता है। अनुभव मे वडी पाठशाला और कौन हो सकती है ? हाँ, दुनिया की लीक छोड कर अपने रास्ते थोडी देर भटक कर ही सीधा रास्ता मिलेगा । ध्यान रहे, आदमी को लीक-लीक चलने में कम-से-कम बुद्धि लगानी पडती है, पर वह लीक सुखपुरी को नही जाती । वह लीक असतोप नगर को जाती है । उस ओर जाने की उसे पीढियो से आदत पडी है । दूसरे रास्ते में ज्यादा-से-ज्यादा बुद्धि लगानी पडती है, ज्यादा मे-ज्यादा जोर लगाना पडता है, वहाँ कोई पग-डडी वनी हुई नही है । हर एक को अपनी बनानी पडती है। हाँ, उस रास्ते चल कर जल्दी ही ज्ञान- नगर दीखने लगता है और फिर हिम्मत वॅब जाती है । कम ही लोग यादत छोड उम रास्ते पर पडते हैं, पर पडते जरूर हैं । जो पडते है, वे ही ज्ञान-नगर पहुँचते हैं और उसके चिर-सायी सुख को पाते हैं ।
सुख चाहते सव हैं । बहुत पा भी जाते हैं, पर थोडे ही उसे भोग पाते हैं । सुख ज्ञान के बिना भोगा नहीं जा सकता । असतोष नगर की ओर जो बहुत वढ चुके हैं वे सुन कर भी नही सुनते और जान कर भी नहीं जानते । उन्हें भेद भी कैसे बताया जाय, क्योकि वे भेद जानने की इच्छा ही नही रखते । भगवान बुद्ध पर उसका राजा वाप तरस खा सकता था, पाँव छू सकता था, बढिया माल खिला सकता था, पर भेद पूछने की उमे कव मूझ सकती थी । मेठ को स्वप्न भी श्रायेगा तो यह आयेगा कि अमुक साघु विना कुटी का है । उसकी कुटी बना दी जाय । उसे स्वप्न यह नही आ सकता कि वह मावु सुख का भेद जानता है और वह भेद उमसे पूछा जाय ।
ज्ञानी कहलाने वाले लोग बाज़ार की चीज़ वने हुए हैं। अखवार उठाओ और जी चाहे जितने मँगा लो । जो बाज़ार की चीज बनता है, वह ज्ञानी नही है ! वह क्या है, यह पूछना बेकार है और वताना भी बेकार है ।
पैदा हुए, बढे, समझाई, दुख-सुख भोगा, बच्चे पैदा किये, वूढे हुए और मर गये | यह है जिन्दगी । एक के लिये और सव के लिये । इसमें सुख कहाँ ? सुखी वह है, जिसने यह समझ लिया कि कैसे जीयें ? क्यो जीयें ? पर यह कौन सोचता है ? और किसे ठीक जवाब मिलता है ? मुसलमान के लिये यह बात क़ुरानगरीफ सोच देता है और हिन्दू के लिये वेद भगवान । फिर लोग क्यो सोचें ? कभी कोई सोचने वाला पैदा हो जाता है, पर उसका सोचा उसके काम का । तुम्हारे किस काम का । वह तुमको सोचने की कहता है। तुम उसका सोचा अपने ऊपर घोप लेते हो । थोपने से तुम्हारा अपना ज्ञान थुप जाता है । सोचने की ताकत जाती रहती है । इस तरह दुनिया वही की वही बनी रहती है । पुजारी पूजा करता रहता है, सिपाही लड़ता रहता है, सेठ पैसा कमाता रहता है, नाईधोबी सेवा करता रहता है । सोचने का रास्ता वद हो जाता है, रूढि रोग रुके का रुका रह जाता है । रूढि रोग से अच्छा होना चमत्कार ही समझना चाहिये । रूढियो मे खोट निकालने लगना और भी वडा चमत्कार है और उन्हें सुख के रास्ते के काँटे बता देना सबसे बडा चमत्कार है । जिन्दगी की अलिफ-वे-ते, यानी आई, यही से शुरू होती है । धर्म भले ही किसी वुद्धिमान की सूझ हो, पर हिन्दू जाति, मुसलमान जाति, ईसाई जाति, जैन जाति, सिख जाति, किसी समझदार की सूझ नही है । यह आप उगने वाली घास की तरह उठ खडी हुई है । इनकी खाद है— कायरता, जगलीपन, उल्टी-सीधी बातें, उजड्डुपन, दब्बूपन वगैरह । आलस के पानी से यह खूब फलती-फूलती है । रिवाजो की जड में, फिर वे चाहे कैसे ही हो, मूर्खता और डर के सिवाय कुछ न मिलेगा। जब किसी को इस वात का पता चल जाता है तो वह उस रिवाज को फौरन तोड डालता है और अपनी समझ से काम लेने लगता है । आज ही नही, सदा से ज्ञान पर शक (संदेह ) होता आया है । कुछ धर्म पुस्तक तो उसको शैतान की चीज़ मानती हैं। जो धर्मपुस्तक ऐसा नही बताती उसके अनुयायी ज्ञान की खिल्ली उडाते हैं और खुले कहते हैं कि ज्ञानी दुराचारी हो सकता है और अज्ञानी भला, पर याद रहे सुखी जीवन ज्ञानी ही विता सकता है, अज्ञानी कदापि नही ।