________________
प्रेमी-अभिनदन-प्रय ६०६ करना होता है। अभी हमारे देश में वनो की उपज को सावधानी से काम में लाने की ओर न तो सरकार का ही ध्यान है और न जनता का। एक वृक्ष वन में काटा जाता है तो यहाँ उसका केवल ३० प्रतिशत भाग काम मे पाने योग्य ठहरता है, जब कि जर्मनी, नार्वे, स्वीडन, और कनाडा मे ७० से १० प्रतिशत तक को काम मे ले पाते है। पेड में से हमारे यहां
१५% वन में ठूठ के रूप में छोड दिया जाता है। १०% छाल और पत्ते फेंक दिए जाते है। १०% कुल्हाडे और करवत के कारण वेकार निकल जाता है। २०% टहनियाँ और चिराई मे टेढा निकला हुआ अनावश्यक प्रश।
५% लकडी को पक्का करने मे हानि । १०% लकडी का दोषपूर्ण भाग। ७०%
अब यदि सावधानी से उपयोग किया जावे तो छाल, वुरादे और पत्तो से स्पिरिट या पावर अल्कोहल (Pover Alcohol), टहनियो से होल्डर, पैन्सिले, टेढ़े-मेढे अश से श्रीजारो के हत्ते, वेट आदि बन सकते है।
लकडी के अतिरिक्त और भी बहुत सी वस्तुएं हमे वनो से मिलती है। सर्वप्रथम घास, जिसे चराई के काम में लिया जाता है और कागज बनता है। कई घासो से सुगन्धित और औषधोपयोगी तेल निकलते हैं। विन्ध्यखड में लगभग ४० प्रकार के वांस पाये जाते है, जिनसे चटाइयां, टोकनी आदि वस्तुएं बनती है। कई वृक्षो से हमे गोद, कतीरा, राल आदि मिलते है । महुए के फूलो से शराव और फलो से चिकना सफेद तेल निकलता है । घोट, बवूल की छाल आदि से चमडे की रगाई होती है और दवाइयो की तो गिनती ही नहीं। शहद, मोम, लाख, कोसे से जगली रेशम, वनजीवो के सीग, चमडे आदि अनेको पदार्थ है। ___स्पष्ट है कि हमारे जीवन, उन्नति, आवश्यकताओ की पूर्ति, वर्षा, भूमि की उपजाऊ शक्ति प्रादि के लिए वनो का अस्तित्व किस प्रकार अनिवार्य है, परन्तु इसे हम अपना दुर्भाग्य ही कहेंगे कि हमारे वन अभी तक उपेक्षित ही नही, वरन् केवल सहार के ही पात्र हो रहे है। आज से साठ-सत्तर वर्ष पूर्व सरकार का ध्यान इनकी ओर प्राकृप्ट हुआ और वनविभाग की सृष्टि हुई। इस विभाग के द्वारा बहुत कुछ लाभ हुआ, परन्तु रचनात्मक दृष्टि से देखा जाय तो लगभग कुछ नहीं के वरावर काम हुआ है। फिर पिछले और हाल के महायुद्ध मे तो वनो की अपार हानि हुई है और इस हानि की पूर्तिहेतु कुछ नही हो सका। यह काम केवल शासकगण का ही नहीं है। जनता और सार्वजनिक सस्थाओ के लिए भी विचारणीय है। वनो का नाश हमे कहाँ ले जा रहा है, इसके अनेक ज्वलन्त उदाहरण है। पूर्वी पजाव के वन गत पचास वर्षों मे कट गये। परिणामत नदियो और नालो ने उपजाऊ मिट्टी वहा दी और भूमि बजर हो चली। अव वहाँ वन लगाए जा रहे है। दिल्ली से इटावा तक जमुना के दोनो कूलो के वन गत सौ वर्षों में साफ हो गए। अव पश्चिम से उठी हवाएँ मारवाड से अन्धड के रूप मे पाती है और जहाँ थमती है, वहां मारवाडी रेत गिरा जाती है। रेत का इस तरह गिरना गत पचास-साठ वर्षों से चालू है। अव इस प्रदेश की भूमि पर तीनतीन इच मोटी रेत की सतह जम गई है। वह भूमि पूर्वापेक्षा ऊर्वरा नही रही। यदि दिल्ली से इटावा तक जमुना के दक्षिणी छोर पर चार या छ मील चौडी वनरेखा होती तो ये अन्धड जहां-के-तहां रह जाते । वर्षा भी काफी होती और जमुना तथा चम्बल और उनकी सहायक नदी-नालो से भूमि न कटती। जहां सरकार के लिए ये प्रश्न विचारणीय और करने योग्य है, वहां प्रत्येक गृहस्थ और नागरिक का भी कर्तव्य है कि वह अपने अधिकार की भूमि में लगे पेडो की रक्षा करे, नए पेड लगावे और उनका पालन-पोषण करे। वन ही राष्ट्रीय धन है और इसकी रक्षा सरकार और प्रत्येक नागरिक को करनी चाहिए। टीकमगढ़ ]