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बुन्देली लोक-गीत
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सात बुन्देली लोकगीत
श्री देवेंद्र सत्यार्थी बुन्देलखड मे पुरानी टेरी (टीकमगढ) के नन्हे धोवी के मुख से मधुर और करुण स्वरो मे 'धनसिंह का गीत' सुन कर वुन्देलखड के इतिहाम का एक महत्त्वपूर्ण पृष्ठ मेरी आंखो में फिर गया था। मै यह मोचता रह गया था कि आखिर यह कुंवर धनसिंह थे कौन, जिनकी याद में एक धोबी की नही, समस्त बुन्देलखड की आँखो में आंसू आ जाते है ? इस गीत का लोक-कवि बताता है कि धनसिंह ने छीकते हुए पलान कमा था और मना किये जाने की भी परवा न करते हुए घोडे पर सवार हो गया था। गम्ते मे उमके वाई पोर टिटहरी वोल उठी थी और दाई ओर गीदड चिल्लाने लगा था। यहां हम किमी एक व्यक्ति या परिवार के नहीं, बल्कि समूचे बुन्देलखट के पुरातन अशकुनो का परिचय पा लेते है । जहाँ तक गीत के माहित्यिक मूल्य का सम्बन्ध है, घर लौट आने पर धनसिंह के घोडे का यह उत्तर कि उसका म्बामी चोख मे माग गया और इममे उसका कुछ अपराध नहीं, बहुत प्रभावकारी है।
एक और बुन्देली लोकगीत मे वैलो के गुण-दोप आदि की परख का बहुत सुन्दरता मे वर्णन किया गया है। जहां तक इसकी मगीतक गतिविधि का सम्बन्ध है, इमे हम वडी प्रामानी से एक प्रथम श्रेणी का नृत्य-गीत कह सकते है। मुझे पता चला कि यह 'छन्दियाऊ फाग' कहलाता है।
पाण्डोरी में गौरिया चमारिन से मिला 'मानोगूजरी का गीत' मुगलकालीन वुन्देलखड के इतिहास पर प्रकाश डालता है। उत्तर भारत के दूसरे प्रान्तो मे भी इममे मिलते-जुलते गीत मिले हैं। हर कही मुगल के इश्क को ठुकराया गया है। भारतीय नारी मुगल मिपाही को खरी-खरी मुनाती है।
माता के भजनो में एक ऐसी चीज़ मिली है, जिसे हम अहिमा का विजय-गान कह सकते है। यह गीत टीकमगढ में न्होनी दुलइया गुमाइन में लिखा गया था। 'कविता-कौमुदी" मे भी इसमे मिलता-जुलता एक गीत मौजूद है, जिसमें पता चलता है कि यह कथा उत्तर भारत की किमी पुरातन कथा की ओर मकेत करती है ।
टीकमगढ जेल में हलकी ब्राह्मणी मे मुना हुआ एक 'सोहर' इस समय मेरे सामने है। जिस मधुर और जादूभरी लय में हलकी ने यह गीत गाकर मुनाया था, वह अपूर्व था। उसका यह गीत मेरी आत्मा में सदा गूजता रहेगा। जब किमी परिवार में माता की कोग्व मे पुत्र का जन्म होता है तो मारे गांव मे हर्ष की लहर दौड जाती है। जन्म मे पहले के नौ महीनो में ममय-समय पर स्त्री की मानसिक दशा का चित्रण 'सोहर' की विशेषता है।
___ एक गीत मे गडरियो की भांवर का मजीव चित्र अकित है। टीकमगढ जेल के समीप एक वृद्ध गडरिये से वह गीत प्राप्त हुआ था।
। अन्त मे एक और गीत की चर्चा करना आवश्यक है। पुरानी टेरी की जमुनियां वरेठन, जिसने वह 'दादरों लिखाया था, डरती थी कि कही उमका गीत उसके लिए मज़ा का कारण न वन जाय । यह इसी युग की रचना है, जिममे न केवल यह पता चलता है कि अभी तक लोक-प्रतिभा की कोख बाँझ नहीं हुई है, बल्कि यह भी ज्ञात होता है कि एक नये प्रकार का व्यग्य, जो विशेपत वदलती हुई राजनैतिक परिस्थितियो पर कडी चोट करता है, गहरी जड पकड रहा है।
नीचे वे मात गीत दिये जा रहे है, जिनका ज़िक्र ऊपर किया गया है
'ग्रामगीत पृष्ठ ७७७