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प्रेमी-अभिनदन-प्रथ
लिये उपलब्ध करा देना आवश्यक है।" इसी प्रकार के विधान अन्य प्राच्य-पाश्चात्य सशोधको ने किये है। प्रो० हीरालाल कापडिया ने जैन ग्रन्य-सूची के वारह भाग सम्पादित किये है। उसी प्रकार प्रो० वेलणकर ने 'जिन रत्नकोश' के दो भाग, लगभग सवा सौ स्थान के जैन-प्रय भाडारादि तथा जन-प्रजन पडितो की सहायता मे १९४४ ईस्वो मे प्रकाशित किये। ज्ञान-विज्ञान के प्रत्येक विभाग में-दर्शन, न्याय, व्याकरण, काव्य, वैद्यक, ज्योतिप, खगोल, भूगोल, नाटक, चम्मू, साहित्य, भौतिकविज्ञान आदि विपयो पर जनमाहित्यिको के सहस्रविध गन्य मिलते है। ये सव रचनाए महावीरोत्तर काल की है। जैनो के अन्तिम तीर्थकर को निर्वागप्राप्ति के पश्चात् मानवो-बुद्धि को धारणाशक्ति दिन-ब-दिन कम होती गई। महावीर के प्रमुख शिप्य गौतमगणधर ने अगपूर्व ग्रन्य को रचना की। उन्होने वह श्रुत-पागम सुधर्मम्वामी को सिखाया । यही मुधर्मस्वामी ग्यारह ग्रन्यो के रचयिता है। उनके पश्चात् अगपाठो मुनि हो गये। वोर निर्गणकाल के पश्चात् करीव मात सौ वरस तक वाग्परम्परा और पाठान्तर से ही यह श्रुतज्ञान चिरस्थायी किया गया। इसके पश्चात् लेखनकला का उदय हुआ। गुरुपरम्परा से श्रवण किये हुए और मुसोद्गत धर्मशास्त्र महाकवियो ने पहले ताम्रपट, फिर भूजपत्र, ताडपत्र आदि पर, अन्त मे कई गतियो के बाद कागज पर लिखना प्रारम्भ किया।
श्री भूतवलि मुनि ने प्रथम पट्खडशास्त्री की रचना की। यह रचना ज्येष्ठ शुक्ल पचमी को लिपिवद्ध की। तभी से इस शास्त्र की अवतारणा हुई। उसी दिन के उपलक्ष मे अभी भी श्रुत पचमी नामक ज्ञानोत्सव मनाया जाता है। उसके उपरान्त के काल खड मे जनसाहित्य-पागम, दर्शन, काव्य, कथा आदि कुन्दकुन्दाचार्य, उमास्वामी, ममन्तभद्र, अमृतचन्द्रसूरि, जिनमेन, गुणभद्र, पूज्यपाद, भट्ट अकलक से लगा कर पडित तोडरमल, पागाधर, गोपालदास तथा नाथूराम प्रेमी तक के सभी जनमाहित्य धुरन्वरो ने रचा है। उपर्युक्त तालिका दिगम्बरपन्योय लेखको की है। श्वेताम्बरियो मे भी म्यूलभद्र, कलिकालसर्वज्ञ, हेमचन्द्र, आत्माराम, शतावधानी महात्मा गयचन्द्र आदि दिग्गज वाग्वीरो ने चिरतन स्वरूप का अनमोल माहित्य रचा है।
४-मराठी में जैन-साहित्य श्रवणवेलगुल के गोम्मटश्वर की-बाहुबलि कीजगद्विग्न्यात मूर्ति के चरणकमलो के एक अोर शिल्पित जो प्रसिद्ध शिलालेख है, वह मराठो का आद्य शिलालेख है । इस विशाल मूर्ति की ऊँचाई ५७ फीट है। ऐसा शिल्पकार्य भारतवर्ष मे अन्यत्र नहीं मिलेगा। नागरी शिलालेख के पहले लेख मे-'थी चामुडराजे करवियले' (अर्थात् श्री चामुडराज द्वारा बनाया गया) यही अक्षर है । इनमे केवल श्री ही दो फीट ऊंची है। लेख की ऊँचाई मूर्ति की ऊंचाई के अनुसार ही है । नागरी लिपि के दूसरे मराठी लेख मे-"श्री गगराजे सुत्ताले" (अर्थात् श्री गगराज ने इस मूर्ति का कटघरा बनाया) ऐसा उल्लेख है। इन मूर्ति की प्रतिष्ठापना का और चामुडराय के शिलालेख का काल ९८३ ईस्वी है । वोरमार्तड चामुडराज तथा गगराज जैनधर्म के वडे प्रवर्तक तथा प्रभावक हो गये। इसी के नीचे द्वाविडी शिलालेख में इसी प्रागय का लेख कन्नड तथा तमिल भापा में भी खोदा गया है।
__ मराठी के जनसाहित्यिको मे प्रथम वाल ब्रह्मचारी हिराचन्द अमोलिक फलटणकर नामक साधुवर्य का गौरवपूर्ण उल्लेख करना चाहिए। उन्ही के साथ ब्रह्मचारो महतिसागर तथा कवीन्द्रसेवक इन दो त्यागियो का उल्लेख करना पडता है। हिराचन्द जैनो के आद्यपुराणकार है। आपका 'जन रामायण' नामक काव्यग्रन्थ प्रसादपूर्ण है । वह आवालवृद्ध में लोकप्रिय है। इस प्रतिभासम्पन्न पडित ने 'नलचरित्र' भी लिखा है। इसके सिवा अन्य फुटकर पद्यरचना द्वारा जैनियो की अन्धश्रद्धा तथा मूर्खताएं नष्ट की है। तत्कालीन जैन समाज मे कुरूढियो का बोलवाला था। हिराबुवा ने अपनी पूरी प्रायु उन्हें दूर करने मे तथा सम्यग्ज्ञान का साहित्य द्वारा तथा प्रवचन द्वारा प्रचार करने में विताई। उनके समन ग्रन्थो के तथा रामायणादि ग्रन्यो के पुनर्मुद्रण की आवश्यकता है। व० महतिसागर के अभग उपदेशपूर्ण है। उनमे व्यावहारिक दृष्टान्त, उपमा इत्यादि होने से वे अत्यन्त