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प्रेमी-अभिनदन-प्रय पिय संगमि कउ निद्दडी पिनहो परोक्खहो केम्ब ।
मइ विनि वि विनासिमा निद्द न एम्व न तेम्व ॥ (८-४-४१८) प्रियतम साथ होते हैं तो आनदोल्लास के कारण नीद नही आती। साथ नहीं होते तो विरह-दुख के कारण मांस नहीं लगती। इस प्रकार मिलन और विछोह दोनो प्रसगो मे मेरी नीद चली गई है।
ऐसे अनेको शृगार, वीर, करुण आदि रस के सारगर्भित उदाहरण प्राचार्य हेमचद्र ने दिये है। इन्हें देखने से अनुमान होता है कि इस लोक में कितना विपुल साहित्य विखरा हुआ पडा है । इस प्रकार का साहित्य निरतर वढता हो गया है। साहित्य के गयो में उसका अधिकाग मम्मिलित नहीं हुआ है, पर इस प्रदेश मे वह अभी तक व्याप्त है। श्री भोरचद मेघाणी आदि लोक-साहित्य के प्रेमियो ने उमे पर्याप्त परिमाण मे सगृहीत करके इस देश की रसिकता, वोरता आदि का हमे स्पष्ट परिचय दिया है।
एक ओर रसिकता-पूर्ण लोक-साहित्य पनपा तो दूसरी ओर अन्य प्रकार का साहित्य भी फला-फूला। अनेक माहित्यकारो ने हैम-युग मे साहित्य-सृजन किया, पर उसमे हमे भापा के असली रूप का आभास नहीं मिलता। यह चोज तो हमे रासयुग के साहित्यकारो की रचनात्रो मे ही दिखाई देती है। स० १२४१ में निर्मित वीररम से पूर्ण गालिभद्र सूरिकृत "भरतेश्वर बाहुबलिरास" नामक रास-काव्य अभी तक ज्ञात-कृतियो में प्राचीनतम कृति है, जिममें इस देश को वोलो असलो स्वरूप में हमे मिलती है।
जोईय मरह नरिंद कटक मूछह वल घल्लइ , कुण बाहूबलि जे उ बरव मइ सिउ बल बुल्लइ । जइ गिरिकदरि विचरि वीर पइसतु न छुटइ,
जइ थली जगलि जाइ किम्हइ तु सरइ अपूटइ ॥१३०॥ इस देश का साहित्यकार भी यहां अपनी मूछो परताव देता जान पडता है। रासयुग के लगभग ढाई सौ वर्ष के पश्चात् जन कवियों ने रास, फागु, वारमासी, धवलगीत, कक्का इत्यादि अनेक प्रकार का समृद्ध साहित्य इस देश को भेट किया । इसमे से प्रकाशित तो बहुत कम हुआहै। अभी तो कई सौ की सख्या मे पाडुलिपियाँ भडारोमे दवीछो पड़ी है। फिर भी जो कुछ प्रकाशित हुआ है उससे रामयुग की भव्यता का परिचय मिलता है।
रामयुग की कविता धार्मिक परिधि मे वधी हुई है । अत प्रथम दृष्टि मे उममे हमे धार्मिकता का ही आभास होता है, पर उसका सूक्ष्म अध्ययन करने पर धार्मिक तत्त्व तो केवल कथा-वस्तु तक ही नीमित दीख पड़ता है। उस कथा-वस्तु की गोद में वास्तविक कवित्व ओत-प्रोत दिखाई पड़ता है। नेमिनाथ और राजिमती को लक्ष्य करके लिखे गये भिन्न-भिन्न प्रकार के अनेक काव्यो में हमे असली काव्य के दर्शन होते है।
वारमासो विरह की महत्त्वपूर्ण काव्य-कृति होती है। यह चीज़ रासयुग मे पनपी है । चौदहवी सदी के पूर्षि में 'नेमिनाय-चतुष्पदिका' नामक वारमासी-काव्य विनयचन्द्र सूरि नामक एक जैन साधु ने तैयार किया था। निर्दोप विप्रलम्भ शृगार का ऐसा काव्य हमारी भाषा मे तो शायद अपूर्व है। उसकी भाषा की समृद्धि भी सम्मान की वस्तु है।
श्रावणि सरवणि कडुय मेहु गज्जइ विरहि रिझिज्झइ देहु ।
विज्जु झवक्कइ रक्खसि जेव नमिहि विणु सहि सहियइ केम ॥२॥ मावन को बौछार गिरती है, कटु मेघ गर्जन करता है, विरह के कारण शरीर क्षीण होता है, राक्षसी जैसी विद्युत चमकती है। हे सखि । नेमि के विना यह सब कैसे सहा जाय ?
फागु मे वसन्त-क्रीडा का वर्णन मिलता है। यह भी रासयुग को वारमासो जैसी दूसरो आकर्षक वस्तु है ।