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प्रेमी-अभिनदन-प्रय की और मूर्ति के लिए त्रिसगमपुर नगर के राजा महीपाल देव से प्रारासण की खदान से 'फलही' (विराट शिला) मंगवाई। यह शिला उपर्युक्त राजमार्ग से होकर ही शत्रुञ्जय पहुंची। सबसे पहले यह शिला खेराल नामक नगर में गई और वहाँ से भांडु होकर पाटण पहुंची।
शिला में से मूर्ति तैयार हो जाने का समाचार शत्रुञ्जय से मिलने पर समरसिंह ने अपने पिता जी के साथ वडा भारी सघ निकाला, जिसमें अनेक साधू, साध्वी, श्रावक व श्राविकाएं सम्मिलित हुई। यह सघ पाटण से रवाना होकर आगे वढता हुआ अनुक्रम से गखारिका, सेरिसा, क्षेत्रपुर (सरखेज), धवलक्कपुर (धोलका), पिप्पलाली (पिपराली) होता हुआ शत्रुञ्जय पहुंचा। 'समरारासु' में महामार्ग में पाये ग्रामो का निर्देश इस प्रकार है
"सरीसे पूजियउ पासु, कलिकालिहिं सकलो, सिरजि थाइउ धवलकए सघु प्राविउ सयलो। घधूकउ अतिक्रमिउ ताम लोलियाणइ पहुतो, नेमिभुवणि उछ करिउ, पिपलालीय पत्तो। (भाषा ६ . ५)
पालीताणइ नयरे सघ भयलि प्रवेसु। (भाषा ७ : १) शत्रुञ्जय तीर्थ का उद्धार कर और मूल प्रतिमा की प्रतिष्ठा करके सघ सौराष्ट्र देश में प्रभासपाटण तक गया। वहां से शत्रुञ्जय वापस होकर पाटण लौट आया। वापसी मे इन ग्रामो का उल्लेख मिलता है-अमरावती (अमरेली), तेजपालपुर, गिरनार, वामनपुरी (वथली ), देवपत्तन (प्रभासपाटन), कोडीनार, द्वीपवेलाकूल (दीववन्दर), शत्रुञ्जय, पाटलापुर (पाटडी), शखेश्वरपुर, हारीज, सोइला-गाम और पाटण । 'समरारासु' में भी इसी मार्ग का निर्देश है
"सोरठदेस सधु सचरिउ मा० चउडे रयणि विहाइ आदिभक्तु अमरेलीयह मा० प्राविउ देसल जाउ" (भाषा ६ १-२) "ठामि गमि उच्छव हुआई मा० गढि नूनइ सपत्त" (भाषा ६.३) "तेजि अगजिउ तेजलपुरे मा० पूरिउ सख प्राणदु" (भाषा ६ ४) "वउणथली चेत्र प्रवाडि करे मा० तलहटी य गढमाहि, ऊजलि उपरि चालिया ए मा० चउविवह सघमाहि । दामोदर हरि पचमउ मा० कालमेघो क्षेत्रपालु, सुवनरेहा नदी तहिं वहए मा० तरुवरतणउ झमालु ॥" (भाषा ६. ५) "देवपटणि देवालउ प्रावइ सघह सरवो सरु पूरावई' (भाषा १० . २) "कोडिनारि निवासण देवी अविक अबारामि नमेवी
वीवि वेलाउलि पावियउ ए।" (भाषा १०.६) वहाँ से शत्रुञ्जय होता हुआ सघ पाटण पाने के लिए रवाना हुआ
"पिपलालीय लोलियणे पुरे राजलोफ रजेई छडे पयाणे सचरए राणपुरे, राणपुरे राणपुरे पहुचेई वढवाणि न विलवु किउ निमिउ करीरे गामि मडलि होइउ पाडलए नमियऊ ए नमियऊ ए नमियऊ नेमि सु जीवतसामि सखेसर सफलीयकरण पूजिउ पास जिणिदो" (भाषा १२:४-५)