________________
५४२
प्रेमी-अभिनदन-प्रथ के कोशो से आकार-गुणो में अधिक वितृस्त और उत्तम है। १८३१ मे मोल्मवर्थ ने एक नवीन शब्दकोश बनाया, जो उसके पूर्व के सभी कोशो से अधिक वैज्ञानिक और शब्दो के चुनाव, सख्या, अर्थ आदि सभी दृष्टियो में बेहतर है। अभी भी मोल्सवर्थ का यह कोश प्रमाणभूत माना जाता है। परिश्रमपूर्वक, विवेचकवुद्धि से वह बनाया गया था। मेजर क्याडो ने इसी कोश की दूसरी आवृत्ति मे वे दोप मुधार दिये, जो पहले मस्करण मे रह गये थे।
इनके बाद के कोश इस प्रकार थे---गीर्वाण लघुकोश (ज० वि० ओक-१८३७), सस्कृत प्राकृत कोग (अनतशास्त्री तलेकर--१८५३, और माधव चन्द्रोवा-१८७०), हसकोश (२० भ० गोडवोले-१८५३), विग्रहकोश-धातुत्युत्पत्तिकोश (व० शा० म० गोपालशास्त्री धाटे-गिलाल्लिखित-१८६७), सस्कृतमहाराष्ट्र धातुकोग (विष्णु परशराम पडित-१८६५), वावा पदम जी और वा० गो० आप्टे के कोग-१९६३, रलकोश-वा० भ० वीडकर-१८६६, नवीन किंवा सुपरकोश-२० भ० गोडवोले-१८७०, सस्कृत-प्राकृत कोगना० प्रा० गोडवोले-१८७२, आदि कोश निवधमाला युग तक लिखे गये।
इसके पश्चात् कोशसाहित्य के दृष्टिकोण में विचित्र परिवर्तन होने लगा। कोगनिर्माण की ओर जिस वैज्ञानिक दृष्टि से देखने की प्रवृत्ति पाश्चात्यो ने प्रचलित की उसका मैसर्ग इधर भी वढा । पहले की सकुचित दृष्टि दूर होकर उसे व्यापक रूप मिलने लगा। इस बात का प्रमाण जनार्दन हरी पाठले और राव जी केशव सावारे का दुर्भाग्य से अधूरा पड़ा हुआ विश्वकोश है । पहिले लेखक के कोश का नाम विद्यामाला (१८७८) और दूसरे लेखक के कोग का नाम विद्याकल्पतरु है । लो० तिलक के एक सहाध्यायी माधवराव नाम जोगी ने भी एक विस्तृत कोशरचना का सूत्रपात किया था। वह प्रयत्न उनके असामयिक निधन से अपूर्ण रहा। शुद्ध मराठी कोश (वि० रा. बापट और वा० वि० पडित-१८९१) से केवल शब्दार्थ न देते हुए कुछ अधिक जानकारी देने का प्रयत्न होने लगा ये कोश है स्थल नामकोश (गो० वा० वैद्य और वा० व० भरकरे-१८६६), ऐतिहासिक स्थल सूची (गो० का० चादारेकर), अपभ्रष्टशब्दचद्रिका (प्र० रा० पडित-१८७८), व्युत्पत्तिप्रदीप (गो० श० वापट--१९०८) ।
अव कोश साहित्य के अन्य क्षेत्र भी खुलने लगे और भारतवर्ष के प्राचीन ऐतिहामिक चरित्रकोश (र० भा० गोडवोले), राजकोश (प्र० सी० काकेले), वाक्यप्रचार और कहावतो का कोश (सोलकर, देशपाडे-तारलेकर, छत्रे, आपटे, वि० वा० भिडे), सख्यावाचक दुर्बोधशक कोश (रघुनाथ देवमी मुले) के साथ-साथ अन्य भाषामो के कोश भी बनने लगे, यया पोर्चुगीज-मराठी (सूर्याजी पानदराव राजादिक्ष दलवी), कन्नड-मराठी (ना० मो० रुद्रे), वगाली-मराठी (वा० गो. आपटे), फारसी-मराठी (माधवराव पटवर्धन, पादा चादोरकर), हिदी-मराठी (न० त० कातगडे उर्फ मुडलिक और वैशपायन) 'ट्वेंटिएथ सेंचुरी' अग्रेजी-मराठी डिक्शनरी (श्री० रानडे), अमरकोश का मराठी भाषातर । मराठी शब्द रत्नाकर (वा. गो. आपटे) और गब्दसिद्विनिवध (आठवले, आगाशे) कोश साहित्य के प्रधान स्तभ माने गये है। __कोग-साहित्य की दृष्टि अव अधिक व्यापक होने लगी। ज्ञान की सीमाएँ ज्यो-ज्यो बढने लगी, इस ओर मांग भी बढती गई। डॉ० केतकर का महाराष्ट्र ज्ञानकोश इसी मॉग की पूर्ति है। डॉ. केतकर के कोश की तुलना में भारतीय साहित्य की अन्य भाषाओं में विरले ही ग्रथ होगे। वि० च. भिडे का १७ खडो का शब्दकोश, सरस्वतीकोश, सिद्धेश्वरशास्त्री चित्राव का वैदिक साहित्य का अध्ययन सुलभ बनाने की दृष्टि से चरित्रकोश, ग० र० मुजुमदार का व्यायाम-ज्ञानकोश-पर भिडे का पांच खडो मे 'व्यवहारज्ञानकोश', इनके अलावा वनस्पतिकोश, वैज्ञानिक शब्दकोश, समाजी शासन शब्दसग्रह, वाङ्मय सूची, पारिभाषिक शब्दकोश, रसकोश आदि कई अभिनव अथ इस दिशा मे मिलते है । हाल में मानसशास्त्रशब्दकोश प्रा० वाडेकर ने प्रकाशित किया है । इस प्रकार से कोश साहित्य का महावृक्ष बहुत दूर-दूर तक फैलता जा रहा है। ग्वालियर]