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प्रेमी-प्रभिनदन-प्रय
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तत्रैवाऽयो पत्तने श्रीगुरूणा तेषा भव्यप्रार्थित्तस्वस्तरूणाम् । देमाई साश्राविकावर्गमुख्यानोषीद् (त्)हर्षाद् देशनावाणिमित्यम् ॥४०॥
तथाहि
न ते नरा दुर्गतिमाप्नुवन्ति न मूकता नैव जडस्वभावम् । न चान्धता बुद्धिविहीनता च ये लेखयन्तीह जिनस्य वाक्यम् ॥४१॥
लेखयन्ति नरा धन्या ये जिनाऽऽगमपुस्तकम् ।
ते सर्ववाड्मय ज्ञात्वा सिद्धि यान्ति न सशय ॥४२॥ पठति पाठयते पठतामसी वसन-भोजन-पुस्तक-वस्तुभि । प्रतिदिन कुरुते य उपग्रह स इह सर्व विदेव भवेन्नरः ॥४३॥ विशेषत. श्रीजिनवीरभाषित श्रीकल्पसिद्धान्तमम् समुद्यता । ये लेखयन्तीह भवन्ति ते ध्रुव महोदयानन्दरमानिरन्तरम् ॥४४॥ निशम्य तेषामिति देशनागिर चिर फिरन्तीमुदयं महेनसाम् । विशेषत पुस्तकलेखनादिके श्रीधर्मकृत्येऽजनि सा परायणा ॥४५॥ श्रीस्तम्भतीर्यनगरे प्रवरे ततश्च श्रीकण्ठनेत्र-मुनि-विश्वमिते च वर्षे । (१४७३)। श्रेय श्रियेबहुतरद्रविणव्ययेन
श्रीकल्पपुस्तकमिमं समलीलिखत् सा ॥४६॥ यावद् वित्ति धरणी शिरसा फणीन्द्रो
यावच्च चन्द्रतरणी उदितोऽत्र विश्वे। तावद् विशारदवरैरतिवाच्यमानाः
श्रीकल्पपुस्तफवरो जयतादिहष ॥४७॥ लिखित सोमसिंहन देईयाकेन चित्रित । आकल्प नन्दतादेष श्रीकल्प सप्रशस्तिक. ॥४॥
इति श्रीकल्पप्रशस्ति. समाप्ता ॥छ।
अनुवाद
जिस परमेश्वर की पदत्रयी (उत्पाद-व्यय और ध्रौव्यरूप) ने विष्णु की भांति तीनो लोक को व्याप्त कर दिया है, वह ययार्थ वस्तु स्वरूप का उपदेश देनेवाले श्री महावीर स्वामी सज्जनो के लिए कल्याण की वृद्धि करने वाले हो ॥१॥
गुणरूपी रत्लो के लिए लहराते हुए समुद्र के समान, लब्धिरूप लक्ष्मी के भडार तुल्य, गणाधीशो के समुदाय के नायक, लाख शिष्यो के प्रधान, शम-दम में जिन्हें आसक्ति है, ऐसे सम्पत्ति भडार के स्वामी श्री गौतमस्वामी कल्याण (मोक्ष)रूप-लक्ष्मी के सयोग को सनातन करो ॥२॥ ___जो पडितो के मनरूपी कमल की कोमल पखुडियो में और प्रत्येक कला में हसिनी के समान खेलती है, उस समस्त शास्त्ररूपी समुद्र एव वन को पार कराने वाली और प्रणाम करने वालो को वरदान देने वाली सरस्वती को मै प्रणाम करता हूँ ॥३॥