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मराठी में जैन साहित्य और साहित्यिक
५३३ प्रभावपूर्ण और मनोरंजक जान पडते है । यह अभग और महतिसागर का चरित श्री सखाराम नेमचंद ने प्रकाशित किया है ।
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व वीसवी सदी के आद्य जैन साहित्योद्धारक दानवीर हीराचन्द नेमचन्द के ग्रन्थो की चर्चा की जाती है । आपने जैनमाहित्य का मराठी तथा हिन्दी भाषा में प्रसार करने के लिए १८८५ ईस्वी में 'जैनवोधक' नामक मासिक चलाया। उनके द्वारा जैनागमो का मराठी में सुवोध अनुवाद कर जैनधर्म का प्रसार किया जाय, ऐसा भी सचालको का हेतु था । धार्मिक ग्रन्थ छापने का विरोध कर तत्कालीन जैनपडितो ने जैनमाहित्य की बड़ी हानि की है। इस विरोव की परवा न कर, बम्बई के प्रसिद्ध सेठ माणिकचन्द पानाचन्द तथा हीराचन्द नेमचन्द ने जो वैचारिक सुधार किया, उसी का फल यह है कि मराठी तथा विभिन्न प्रान्तीय भाषाओ मे जैनसाहित्य विशाल परिमाण में प्रकाशित हो रहा है । हिराचन्द ने समन्तभद्राचार्यकृत 'रत्नकरडश्रावकाचार' का मराठी में सुवोव यथातथ्य अनुवाद किया । इसमें १५० श्लोक है । उन पर प० सदासुखदास की हिन्दी विवेचनात्मक टीका भी है । इसीमे श्रावकाचार भी दिये है । इस ग्रथ को जैनियो में बहुत मान्यता दी जाती है । इस ग्रंथ से धर्म तथा नीतिशास्त्र के मुख्य-मुख्य तत्त्वो का ज्ञान होकर सद्भावनाओ का सचार होता है । श्राचार्य के श्रावकाचार का अनुवाद मराठी में कर उन्होने मराठी-कवियो पर बडा उपकार किया । 'पोडशकारणभावना' नामक अनुवाद भी उपदेशयुक्त बना है। इसके सिवा पार्श्वनाथचरित्र तथा महावीरचरित्र नामक दो छोटे-छोटे चरित्र भी लिखे है । उनमें तत्कालीन तीर्थकरो की पूर्वभवावलि दी है । उमी से पुनर्जन्म, आत्मा की श्रमरता यादि के सम्वन्ध में सदेह दूर होते है । यह चरित्र सगोधनात्मक, अद्यतन जानकारी का ग्रन्वेषण कर नवीन पद्धति से तथा स्वतन्त्र रीति से सागोपाग अध्ययन के उपरान्त लिखे गये होते तो अधिक उत्तम होता । 'भट्टारक चर्चा' नामक निवन्ध म जैनजगद्गुरु भट्टारक निरिच्छ तथा विद्वान हो यह आगम-सम्मत होने पर आजकल के बहुत मे भट्टारक लोभीवृत्ति के स्वार्थ से लिप्त हो है - प्रत उन्हें धर्मगुरु न माना जाय इस प्रकार का प्रतिपादन किया गया है। 'पात्रदान तथा नवविधाभक्ति' नामक लघुनिबन्ध भी उन्होने लिखा है । वे तेरापन्यी थे । 'क्या वेश्यानृत्य मे तेरापन्थी मे वाधा होगी ?" नामक निबन्ध में अपने अनुभव और विचारो का सार ग्रथित किया है । 'अहिंसा परमोधर्म' नामक निवन्व तथा अन्य धर्मग्रन्थ भी उन्होने मराठी के ही समान हिन्दी तथा गुजराती में अनूदित कर प्रकाशित किये । उनके 'जैनकथासग्रह' ( १९०७ ईस्वी) मे २४ पौराणिक कथाएँ है । यह ग्रन्थ विश्व के कथासाहित्य में स्थान पा सकता है । जैनकथामाहित्य कितना ऊँचा है, इस सम्बन्ध मे डॉ० जान हर्टले जैसे जर्मन सगोधक कहते है - " सर्वमुगम, स्वाभाविक तथा चित्ताकर्षक पद्धति से कथानिवेदन करने का गुण जैनग्रन्यकारो में मुख्यत प्राप्त होता है ।" सेठ जी ने जैनकथाओ का अनुवाद लालित्यपूर्ण रीति से किया है । 'जैनधर्म-परिचय' नामक सन् १९०१ में दिया हुआ व्याख्यान पुस्तिका के रूप में प्रकाशित हुआ है, जिसकी हिन्दी, गुजराती, श्रग्रेजी आवृत्तियाँ हुई है । शासनदेवतापूजन, पापपुण्य के कारण, निर्माल्यचर्चा आदि अन्य निवन्ध आपने लिखे है ।
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उनके मच्छिष्य प० कल्लप्पा निटवे द्वारा अनुवादित भगवज्जिनसेनाचार्य कृत 'महापुराण आदिपुराण' एक बहुत मूल्यवान ग्रंथ है । निटवे जी का संस्कृत प्राकृत भाषा पर अधिकार, काव्यमर्मज्ञता तथा भाषान्तरपटुता उनके सुन्दर मराठी अनुवाद मे दिखाई देती है । भाडारकर की सशोधन सस्था द्वारा जैसे महाभारत की विवेचना-पूर्ण श्रावृत्ति प्रकाशित हो रही है, जैन यादि पुराण की भी वैसी आवृत्ति यदि निकल सके तो बहुत अच्छा हो । इसी यादिपुराण की 'महापुराणामृत' नामक सक्षिप्त स्वतंत्र रचना प्रस्तुत लेखक ने प्रकाशित की है । निटवे जी ने उपदेशरत्नमाला, देवागमस्तोत्र, प्राप्तमीमासा, प० श्रागाधरकृत सागारधर्मामृत, पचास्तिकाय, समयसार, प्रश्नोत्तर माणिक्यमाला, सम्यक्त्व कौमुदी, जैनधर्मामृतसार, कुदकुदाचार्य कृत रयणसार, श्रमितगति श्रावकाचार, जीवधरचरित्र ( क्षत्र चूडामणि ग्रंथ का अनुवाद) आदि अनेक ग्रथो के मराठी अनुवाद प्रस्तुत किये है। इन ग्रथो में से अनेको में जैनसिद्धान्त, आचारधर्म, श्रात्मानात्मविचार, सृष्टिकर्तृत्व की अत्यत तर्कयुक्त मीमासा व विवेचना मिलती है ।
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