________________
मराठी साहित्य में हास्य रस
५३६
साहित्यसम्राट् न० चिं० केलकर तो विनोद के अवतार है । आपने 'हास्यविनोदमीमासा' नामक समा लोचनात्मक ग्रंथ लिखा है । साथ ही कई सुन्दर निवधो मे अपनी परिहास -प्रियता का परिचय दिया है । अपने ही जीवन की घटनाएँ, मानो हँसते-खेलते हुए वे कह रहे हो -- ऐसी सहज - मनोरम उनकी शैली है । 'विलायत की सफर' में वे कहते है- 'हिमाच्छादित श्राल्पस पर्वत का शिखर ऐसा जान पडता है जैसे खिचडी पर गरी का चूर विछा दिया है। इससे मुझे खिचडी खाने की इच्छा हुई हैं, ऐसा न समझे ।' हाउस ग्रॉफ कामन्स का वर्णन देते हुए वे लिखते है'मत्रिमंडल जहाँ बैठता है उस कोने में अधेरा था । जिस साम्राज्य पर सूर्य कभी अस्त नही होता उसका कारोबार ऐसे ही अँधेरे मे चलता है ।' "गीता के बहुत बडे प्रेमी एक वकील गोताराव थे, जिन्हे दुख हुआ तो उसे वे 'विषादयोग' कहते, वीडी पीते हुए आरामकुर्सी पर पैर फैलाकर आँखे मूद कर पडे रहने को 'ध्यानयोग' कहते । जब कोई मुद्दई रुपये ला देता और वे उसे गिनते तो उसे 'साख्ययोग' कहते । हजामत करने बैठते तो उसे 'सन्यासयोग' कहते । 'कान्फिडेन्शियल' कोई वात श्राती तो उसे वे 'राजगुह्ययोग' कहते । "
गडकरी उर्फ ‘बालकराम' ने तो अपने लेख, काव्य और नाटको मे हास्य को खूब बिखेरा है । ककण ( एक नाटक का पात्र ) याद किया हुआ भाषण कहता है कि 'तुम्हारे सौंदर्य का वर्णन हजार जिह्वावाला ब्रह्मा और चार मुँहवाला शेषनाग भी नही कर सकता । तुम्हारे नख भ्रमरो से, चरण प्रवाल से, गति कदली स्तभ-सी श्रौर हाथी के समान है । शायद कही कुछ भूल हो रही है ।' उनका 'कवियो का कारखाना' और 'ठकीचे लग्न' बहुत प्रसिद्ध विनोदी निवध है ।
चित्य का पूरा ध्यान रखकर, साहित्य का पवित्र उद्देश्य न विगाडते हुए उच्चकोटि का हास्य वा०म० जोशी साहित्य में मिलता है । उनके उपन्यासो में यह विनोद - बुद्धि सूक्ष्मता से निरीक्षण करने पर परिलक्षित होती है । 'ईश्वर सर्वभूताना हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति' पर भय्यासाहव ( एक पात्र जो कि डाक्टर है ) कहते है - 'मैने कई व्यक्तियो का हृद्देश आपरेशन के समय छूरी से काट कर बहुत वारीकी से देखा है, परन्तु वहाँ कही ईश्वर नामक चीज दिखाई नही दी ।' 'रागिणी' नामक उपन्यास में इस प्रकार के काव्यशास्त्रविनोद के कई सुन्दर प्रसग मिलते है । 'सुशीलेचा 'देव' में एक पात्र को लत है कि वह वारवार कहता है- 'स्पेसर कहता है कि-'
ऐसे अभिजात और अक्षर ( क्लासिकल) विनोद का युग अव बीत गया । अब वह सर्वगामी, सर्वकल, सार्वत्रिक र मार्वजनीन वन गया है । पहिले जो शब्दनिष्ठ विनोद बहुत प्रचलित था, उसका स्थान अब प्रसगनिष्ठ और वातावरणनिष्ठ विनोद ने ले लिया है । कुएँ की भाति गहराई हास्य मे से चाहे कम हो गई हो, परतु सरोवर की भाति प्रमार उसमें वढा है । अव हास्य ने नाना प्रकार के आकार और रूप ग्रहण कर लिये है— उपहास, विडवन, उपरोध, व्यगचित्र, अतिशयोक्ति, व्याजोक्ति आदि । 'साधनानामनेकता' इस विभाग मे प्रत्यक्ष दिखाई देती है । प्रा० ना० सी. फडके कॉलेज कुमार श्रौर कुमारियो के जीवन के चित्रकार तथा उसी वर्ग के प्रिय लेखक है । उनके उपन्यासो सभापण में भी यह सूक्ष्म हास्य छटाएँ बिखरी हुई है । वि० स० खाडेकर का विनोद अधिकाश उपमारूपक दृष्टान्तो पर निर्भर है । 'उल्का' उपन्यास में लडकी का नाम क्या रक्खा जाय इस सबंध में चर्चा चल रही है
'तारा नाम क्यो नही रखते । एक चन्द्र का हाथ पकड कर भाग गई, दूसरी ने सुग्रीव से विवाह कर लिया ।' 'परतु हरिश्चन्द्र की तारा तो पति के साथ स्वय भी ऋयित हुई ।'
'तारा तो स्थिर रहने वाली है । अपनी लडकी कुछ ग्रादोलनमयी होनी चाहिए।'
'तो उसे उल्का ही क्यो नही कहते । "
तो खाडेकर-साहित्य में इस प्रकार के श्लेष और हास्यपूर्ण सभाषण इतने अधिक है कि यह ऊपर का दृष्टात केवल सिंधु मे से बिंदु दिखाने के समान है । इस विनोद की गहन साहित्यिकता को और भी जनप्रिय बनाने का श्रेय है प्रि० अत्रे को। कई बार उनका विनोद श्लीलता की सीमा का अतिक्रमण कर जाता है । परतु मराठी साहित्य में कविता की पैरोडी (विडवन) की प्रथा उन्होने अपने 'झेडूची फुले' से बढाई और उसके हास्य के कारण ही महाराष्ट्र